रास पंचाध्यायी (प्रथम अध्याय)
raas pa.nchaadhyaayii (pratham adhyaaya)
बंदन करौं कृपानिधान श्री शुक सुभकारी।
शुद्ध जोतिमय रूप सदा सुंदर अविकारी॥
हरि-लीला रसमत्त मुदित नित बिचरत जग मैं।
अद्भुत गति कतहूं न अटक ह्वै निकसत नग मैं॥
नीलोत्पल-दल स्याम अंग नव-जोवन भ्राजै।
कुटिल अलक मुख-कमल मनों अलि-अवलि बिराजै॥
ललित बिसाल सुभाल दिपत जनु निकर निसाकर।
कृष्ण-भगति प्रतिबंध तिमिर कहुं कोटि दिवाकर॥
कृपा-रंग-रस-ऐन नैन राजत रतनारे।
कृष्ण-रसासव पान-अलस कछु घूम घुमारे॥
उन्नत नासा अधर बिंब सुक की छबि छीनी।
तिन बिच अद्भुत भांति लसति कछु इक मसि भीनी॥
स्रवन कृष्ण-रस-भवन गंड-मंडल भल दरसै।
प्रेमानंद मिली सुमंद मुसकनि मधु बरसै॥
कंबु कंठ की रेख देखि हरि-धरमु प्रकासै।
काम क्रोध मद लोभ मोह जिहिं निरखत नासै॥
उर-बर पर अति छबि की भीर कछु बरनि न जाई।
जिहि अंतर जगमगत निरंतर कुंवर कन्हाई॥
सुंदर उदर उदार रोमावलि राजति भारी।
हिय-सरवर रस पूरि चली मनु उमगि पनारी॥
ता रस की कुंडिका नाभि अस सोभित गहरी।
त्रिबली ता महं ललित भांति मनु उपजति लहरी॥
श्रीवृंदावन चिद्घन कछु छबि बरनि न जाई।
कृष्ण-ललित लीला के काज धरि रह्यौ जड़ताई॥
जहं नग खग मृग कुंज लता बीरुध तृन जेते।
नहिंन काल गुन-प्रभा सदा सोभित रहे तेते॥
देवन में श्रीरमारमन नारायन प्रभु जस।
बन मैं बृंदाबन सुदेस सब दिन सोभित अस॥
या बन की बर-बानिक या बन हीं बनि आवै।
सेस महेस सुरेस गनेस न पारहिं पावै॥
जह जेतिक दुम जाति कल्पतरु सम सब लायक।
चिंतामनि सम भूमि सकल चिंतित फल-दायक॥
तिन मधि इक जु कल्पतरु लगि रहि जगमग जोती।
पत्र मूल फल-फूल सकल हीरा मनि मोती॥
वा सुर तरु महं अवर एक अद्भुत छबि छाजे।
साखा दल फल-फूलनि हरि-प्रतिबिंब बिराजै॥
जदपि सहज माधुरी बिपिन सब दिन सुखदाई।
तदपि रंगीली सरद समय मिलि अति छवि पाई॥
ज्यौं अमोल नग जगमगाय सुंदर जराय संग।
रूपवंत गुनवंत भूरि भूषन भूषित अंग॥
रजनी मुख सुख देत ललित मुकुलित जु मालती।
ज्यों नव जोबन पाइ लसति गुनवती बाल ती॥
नव फूलनि सों फूलि फूलि अस लगति लुनाई।
सरद छबीली छापा हंसत छबि सों मनु आई॥
फटिक छरी-सी किरन कुंज-रंध्रनि जब आई।
मानों बितनु बितान सुदेस तनाउ तनाई॥
मंद मंद चलि चारु चंद्रिका अस छबि पाई।
उझकति हैं पिय रमा-रमन कौं मनु तकि आई॥
तब लीनी कर-कमल जोगमाया-सी मुरली।
अघटित घटना चतुर बहुरि अधरासव जुर ली॥
जाकी धुनि तें अगम निगम प्रगटे बड़ नागर।
नाद ब्रह्म की जननि मोहिनी सब सुख सागर॥
नागर नवल किसोर कान्ह कल-गान कियो अस।
वाम बिलोचन बालन को मन हरन होई जस॥
सुनत चलीं ब्रजवधू गीत-धुनि को मारग गहि।
भवन भीति दुम कुंज पुंज कितहूं अटकी नहिं॥
नाद अमृत को पंथ रंगीलो सूछम भारी।
तिहि ब्रज तिय भले चलीं आन कोउ नहिं अधिकारी॥
जे रहि गई घर अति अधीर गुनमय सरीर बस।
पुण्य पाप प्रारब्ध संच्यौ तन नहिंन पच्यौ रस॥
परम दुसह श्रीकृष्ण-विरह-दुख व्याप्यो तिन मैं।
कोटि बरस लग नरक भोग अघ भुगते छिन मैं॥
जिय पिय को धरि ध्यान तनिक आलिंगन किया जब।
कोटि स्वर्ग सुख भोग छीन कोने मंगल सब॥
सावन-सरित न रुकै करै जौ जतन कोऊ अति।
कृष्ण गहे जिनको मन ते क्यों रुकहिं अगम गति॥
सुद्ध जोतिमय रूप पांच भौतिक तें न्यारी।
तिनहि कहा कोउ गई जोति सी जगत उज्यारी॥
जदपि कहूं के कहूं बधुनि आभरन बनाए।
हरि पिय पैं अनुसरत जहीं के तहिं चलि आए॥
तिनके नूपुर नाद सुने जब परम सुहाए।
तब हरि के मन नैन सिमिटि सब स्रवननि आए॥
झुनक मुनक पुनि छबिलि भांति सब प्रगट भई जब।
पिय के अंग अंग सिमटि मिले छबिले नैननि तब॥
नागर-गुरु नंद-नंद चंद हंसि मंद मंद तब।
बोले बांके बैन प्रेम के परम ऐन सब॥
अहो तिया कहा जानि भवन तजि कानन डगरीं।
अर्द्ध गई सर्वरी कछुक डर डरीं न सगरी॥
लाल रसिक के बंक बचन सुनि चकित भई यौं।
बाल-मृगिन की माल सघन बन भूलि परी ज्यौं॥
मंद परसपर हंसीं लसीं तिरछी अंखियां अस।
रूप उदधि उतराति रंगीली मीन पांति जस॥
जब पिय कह्मो घर जाहु अधिक चित चिंता बाढ़ी।
पुतरिन की सी पांति, रह गई इक टक ठाढ़ी॥
दुख के बोझ छबि-सींव ग्रीव नै चली नाल-सी।
अलक अलिन के भार नमित मनु कमल माल सी॥
तब बोली ब्रज बाल लाल मोहन अनुरागी।
गद्गद सुंदर गिरा गिरिधरहिं मधुरी लागी॥
अहो अहो मोहन प्राननाथ सोहन सुखदायक।
क्रूर बचन जनि कहौ नहिंन ये तुम्हरे लायक॥
सुनि गोपिन के प्रेम बचन सी आंच लगी जिय।
पिघरि चल्यो नवनीत-मीत नवनीत सदृस हिय॥
बिहंसि मिले नंदलाल निरखि ब्रजबाल बिरह बस।
जदपि आतमाराम रमत भए परम प्रेम बस॥
बिहरत बिपिन बिहार उदार नवल नंद-नंदन।
नव कुमकुम घनसार चारु चरचित तन चंदन॥
गोपीजन मन गोहन-मोहन लाल बने यौं।
अपनी दुति के उडुगन उडुपति घन खेलत ज्यौं॥
कुंजनि कुंजनि डोलनि मनु घन तें घन आवनि।
लोचन तृषित चकोरन के चित चोप बढ़ावनि॥
सुभग सरित के तीर धीर बलबीर गए तहं।
कोमल मलय समीर छबिन की महा भीर जहं॥
कुसुम धूरि धुंधरी कुंज छबि पुंजनि छाई।
गुंजत मंजु अलिद बेनु जनु बजति सुहाई॥
इत महकति मालती चारु चंपक चित चोरत।
इत घनसार तुसार मलय मंदार झकोरत॥
इत लवंग नवरंग एलि इत झेलि रही रस।
इत कुरुवक केवरा केतकी गंध-बंधु बस॥
इत तुलसी छबि हुलसी छांड़ति परिमल लपटैं।
इत कमोद आमोद गोद भरि भरि सुख दबटैं॥
उज्जल मृदुल बालुका कोमल सुभग सुहाई।
श्री जमुना जू निज तरंग करि यह जु बनाई॥
विलसत बिबिध बिलास हास नीबी कुच परसत।
सरसत प्रेम अनंग रंग नव घन ज्यौं बरसत॥
अस अद्भुत पिय मोहन सों मिलि गोप-दुलारी।
नहिं अचरजु जौ गरब करहिं गिरिधर की प्यारी॥
रूप भरी गुन भरीं भरीं पुनि परम प्रेम रस।
क्यौं न करें अभिमान कान्ह भगवान किए बस॥
प्रेम-पुंज बरधन के काज ब्रजराज कुंअर पिय।
मंजु कुंज मैं नेकु दुरे अति प्रेम भरे हिय॥
- पुस्तक : अष्टछाप कवि : नंददास (पृष्ठ 53)
- संपादक : सरला चौधरी
- रचनाकार : नंददास
- प्रकाशन : प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार
- संस्करण : 2006
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