(सुंदरीछंद)
जूझि पड्यो भगदत्त लख्यो जब।
कौरव सोदर रोवत हैं सब॥
शोच बढ़यो जिय में अति शोचत।
नैनन ते अँसुआ बहु मोचत॥
वंदत हैं गुरु नृप पायन।
दीन भये बहु भाषत भायन॥
आपनु हौं सब कारज लायक।
क्यों बिगरै जहँ होउ सहायक॥
आजु भयो तुम युद्ध पराजय।
वे रणजीति गये सब निर्भय॥
आपु विचार कछू अब ठानहु।
होय विजय मति सो उर आनहु॥
(दोहा)
राच्यो चकव्यूह गुरु, सुनि अवनि-पति बैन।
दुर्गम दीरघ दुस्सहता, जान्यो कछू परैन॥
(द्रोणउवाच)
न्योति पठावहु पांडुसुत, आवहिं रण को आज।
कै जूझैं कै जाहिं बन, सीझि जाय सब काज॥
(विभंगछंद)
सुनि गुरुबानी सो सिख मानी उर आनी तब बुद्धि यहै।
तब दूत बुलायो सो चलि आयो बेगि पठायो जाय कहै॥
तब आयसु पायो तुरंत सिधायो शीश नवायो भूप जहाँ।
सो सबनि जुहाज्यो लै बैठाज्यो बंधव चाज्यो लसत तहाँ॥
(दूतउवाच)
दीनो यह संदेश, चक्रव्यूह राच्यो तहाँ।
रण हित चलहु नरेश, कै तजि विग्रह जाहु वन॥
(युधिष्ठिरउवाच)
न्योति पठाये आय हैं, कहौ जाए संदेश।
दूत समदि कीनो तहाँ, भूपति उर अंदेश॥
(चौपाई)
जेते भटहैं या दलमाहीं।
चक्रव्यूह सो जानत नाहीं॥
अर्जुन श्रीहरिसंग सिधायो।
तीरथ ते चलि सो नाहिं आयो॥
ता बिन युद्ध कौन यह करि है।
चक्रव्यूह बैठि कै लरि है॥
अर्जुन बिन जानो दल हीनो।
ताते न्योतो रण को दीनो॥
तीनों बंधुन राजा बूझै।
कहौ मंत्र जो जाको सूझै॥
जो यह युद्ध नहीं बनि आवै।
राजपाट क्षिति को को पावै॥
प्रथमहि भीमहि बूझै राजा।
जो रण जीतो सीझे काजा॥
सुनिकै उत्तर भूपहि दीनो।
ऐसे सुन्यो न मैं रण कीनो॥
(छप्पय)
जुरैं युद्ध गंधर्व सर्व तिनको बल गारों।
किन्नर नर अरु यक्ष सबल बल दल संहारों॥
वज्रपाणि जो वज्र लेहिं तो चित्त न आनो।
युद्ध करत दिन रैनि नहीं हौं कछू अघानो॥
बहु शंक अंक नग पन्नगनि को मोसों सरवरि करै।
सुन भूप मोहिं या युद्ध की, सो न कछू बिधि जनि परै॥
(दोहा)
बूझै नृप सहदेव तब, जो यह जानहु युद्ध।
जीत लिये ह्वै जायगो, राजपाट सब शुद्ध॥
(सहदेवउवाच)
जीतौं दानव देव हौं, जुरै युद्ध जो आय।
पै विधि चक्रव्यूह की, कछू न जानी जाय॥
(राजोवाच)
करो नकुल संग्राम यह, राखि कटक की लाज।
नातरु भूमि गई सबै, रण कीनो बिन काज॥
(नकुलउवाच)
आजु अमित संग्राम देव दानव सो मंडों।
जुरै युद्ध जो आय कालदंडहु को दंडों॥
सब अवनीपति जीति गर्व तिनके वर गंजों।
सकल शत्रु संहारि बाहुबल सब दल भंजों॥
सुन भूप पाय तुव आयुसै, हौं इतनो संग्रम करों॥
यह सौंह मोहिं नृप पांडु की सो उलटि पुहुमि ऊपर धरों॥
(दोहा)
देख्यों सुन्यों न कानहूँ, चक्रव्यूह नरेश।
सो न युद्ध कहुँ मैं कियो, यह जिसमें अंदेश॥
(चौपाई)
राजा बहु जिय में पछिताई।
क्यों जीत्यो अब संग्रम जाई॥
बिना पार्थ बहु भयो अकाज।
पुहुमि नशाई बूडयो राज॥
सुर नर दल सब भीमहि डरैं।
ताहूते कछु काज नसरैं॥
सहदेव अरु नकुल विचारि।
तेऊ गये हिये अब हारि॥
बैठ्यो भूपति नाये शीश।
नहिं बोलत कोऊ अवनीश॥
चारो बंधव मन में शोचैं।
मन पछितायँ नयन जल मोचैं॥
सकल कटक में बीत्यो त्रास।
अतःपुर सब पर्यो उपास॥
यह सब साधु सुभद्रा सुन्यो।
हिये शोच करि माथो धुन्यो॥
पति की सूरति चित में धरी।
नैननि जल देही थरहरी॥
कृष्ण साथ चलि अर्जुन गयो।
बहुर्यो नहीं कहातो भयो॥
सुत अभिमन्यु गोद में पर्यो।
माता नैननि आंसू ढर्यो॥
पर्यो पुत्र उरपै तिहि बार।
चिंता कीनी चौंकि कुमार॥
(अभिमन्यूवाच)
कौन हेतु तुम मलिन हौ, कहि धौं सो समझाइ॥
या जग में तो तैं सुखी, और न कोऊ आइ॥
(सवैया)
ज्येठ युधिष्ठिर भीम बली जहँ हैं जगबंदन कृष्ण सों भाई।
धीर धनुर्द्धर अर्जुन सों पति युद्ध जुरै यमहू खपि खाई॥
हैं बिबि बंधु सहदेव सों देवर कीरति है सब भूतल छाई।
मो सम पुत्रहि पायकै माय कहा कहिधौं मुख पै मलिनाई॥
(दोहा)
रुदन करन को या समय, कहिधौं कारण कौन।
काहू के उर त्रास नहिं, संपत्ति संयुत भौन॥
(सुभद्रोवाच)
तुम पितु रण हित कृष्ण सँग, गयो कसे तनु त्राण।
आई सुधि नीकी नहीं, कहौ रहत क्यों प्राण॥
(चौपाई)
भूप युधिष्ठिर दुःख निदान।
भोजन कर न खंड्यो पान॥
तीनौ अनुज रुदन बहु करैं।
वैन नहीं मुखते अनुसरैं॥
नहीं पार्थ की सुधि कछु नीकी।
यहै बात सुत है मो जीकी॥
चलि अभिमन्यु भूप पै गयो।
जाय सभा में ठाढ़ो भयो॥
विलख्यो सब परिवार विलोक्यो।
नैननि ते जल रुकै न रोक्यो॥
माता वचन सत्य कै मान्यो।
जूझ्यो अर्जुन निश्चय जान्यो॥
(दोहा)
उलटि चल्यो तब गेह को, निरखि भीम तब धाय।
बिलख्यो देख्यो पार्थसुत, लीनो अंक लगाय॥
(अभिमन्यूवाच)
क्यों भूपति मन मलिन हौ, अरु दुचिते सब मौन।
हर्ष न काहू उर लख्यो, कहिये कारण कौन॥
(भीमसेनउवाच)
छल कीनो इक द्रोणगुरु, चक्रव्यूह बनाइ।
ता हित न्योत्यो युद्ध को, दीनों यहाँ पठाइ॥
कहि पठई कुरुराज नृप, कै रण राच्यो आय।
कै तजि कै संग्राम थल, रहौ विपिन में जाय॥
(गीतिकाछंद)
नहीं हम सो समर जानै श्रवणहूँ न सुन्यो कहूँ।
देवपुर पाताल जीत्यों नहीं देख्यों सो तहूँ॥
और भूप न ताहि जानत पार्थ को धोखो रह्यो।
सुनत ही अभिमन्यु उठि कै पवनसुत सों यो कह्यो॥
यह काज हौं सब सारिहौं कह चित्त में संशय कियो।
जाय भूपति निकट तब हीं युद्ध हित बीरा लियो॥
आजु कौरव कुल सँहारों द्रोण कर्णहि संहरो।
हतों वर दुश्शासनै यह समर की जय हौं करों॥
(सवैया)
काहे को शोच करोजू इतौ यह काज कितौ अब ही सब सारों।
आजु हतों क्षण में रण में सब कौरव को कुल कोपि सँहारो॥
देखत ही दल द्रोण को दारि सुखांग दवागिनियों पर जारों।
बाजि बिरद्द गरद्द करों सब मीड़ि महारथवंतनि मारों॥
(दोहा)
अद्भुत गति भूपति गनी, लखि शिशु साहस धीर।
शूरणि मणि के हरि कलित, शील सिंधु सो वीर॥
(राजोवाच)
नहिं गुरु ढिग विद्या पढ़ी, समर न देख्यो नैन।
करि साहस बीरा लयो, जानी कछू परै न॥
मोहिं अचंभो पुत्र सुनि, को तू दानव देव॥
गन्धर्व किन्नर यक्ष तू, कहि सब अपनो भेव॥
(अभिमन्यूवाच)
सेवक सोई धन्य स्वामि कारज में शूरो।
धन्य-धन्य सोइ पुत्र मात-पितु आयसु पूरो॥
धन्य-धन्य दास भंग नहिं शासन करई।
धन्य-धन्य सोई शूर समर पग उलटि न धरई॥
धनि बोलि सत्य कहि छत्र कहि सुयश सकल जग लीजिये।
बहु राज काज मन लाज धरि जन्म सफल अब कीजिये॥
(दोहा)
नहीं भूप संशय करो, शोच नशावहु चित्त।
करौं विजय भट सब हनो, आजु रावरे हित्त॥
- पुस्तक : विजय मुक्तावली (पृष्ठ 135-139)
- संपादक : खेमराज श्रीकृष्णदास
- रचनाकार : छत्र कवि
- प्रकाशन : श्री वेंकटेश्वर छापाखाना
- संस्करण : 1896
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