भीषम भयानक पुकार्यौ रन-भूमि आनि,
छाई छिति छत्रिनि की गीति उठि जाइगी।
कहै रतनाकर रुधिर सौं रुँधैंगी धरा,
लोथनि पै लोथनि की भीति उठि जाइगी॥
जीति उठि जाइगी अजीत पंडु-पूतनि की,
भूप दुरजोधन की भीति उठि जाइगी।
कैतौ प्रीति-रीति की सुनीति उठि जाइगी कै,
आज हरि-प्रन की प्रतीति उठि जाइगी॥
पारथ बिचारौ पुरुषारथ करैगौ कहा,
स्वारथ-समेत परमारथ नसैहौं मैं।
कहै रतनाकर प्रचार्यौ रन भीषम यौं,
आज दुरजोधन-दुख दरि दैहौं मैं॥
पंचनि कैं देखत प्रपंच करि दूरि सबै,
पंचनि कौ स्वत्व पंचतत्व मैं मिलैहौं मैं।
हरि-प्रन-हारी-जस धारि कै धरा ह्वै सांत,
सांतनु कौ सुभट सपूत कहवैहौं मैं॥
मुंड लागे कटन पटन काल-कुंड लागे,
रुंड लागे लोटन निमूल कदलीनि लौं।
कहै रतनाकर बितुंड-रथ-बाजी-झुंड,
लुंड मुंड लोटैं परि उछरिति मीनि लौं॥
हेरत हिराए से परस्पर सचिंत चूर,
पारथ औ सारथी अदूर दरसीनि लौं।
लच्छ-लच्छ भीषम भयानक के बान चले,
सबल सपच्छ फुफुकारत फनीनि लौं॥
भीषम के बाननि की मार इमि माँची गात,
एकहूँ न घात सव्यसाची करि पावै है।
कहै रतनाकर निहारि सो अधीर दसा,
त्रिभुवन-नाथ-नैन नीर भरि आवै है॥
बहि-बहि हाथ चक्र-ओर ठहि जात नीठि,
रहि-रहि तापै बक्र दीठि पुनि धावै है।
इत प्रन-पालन की कानि सकुचावै उत,
भक्त-भय-घालन की बानि उमगावै है॥
छूट्यौ अवसान मान सकल धनंजय कौ,
धाक रही धनु में न साक रही सर में।
कहै रतनाकर निहारि करुनाकर कैं,
आई कुटिलाई कछु भौहनि कगर में॥
रोकि झर रंचक अरोक वर बाननि की,
भीषम यौं भाष्यौ मुसकाइ मंद स्वर में।
चाहत बिजै कौं सारथी जौ कियौ सारथ तौ,
बक्र करौ भृकुटी न चक्र करौं कर में॥
बक्र भृकुटी कै चक्र ओरे चष फेरत हीं,
सक्र भए अक्र उर थामि थहरत हैं।
कहै रतनाकर कलाकर अखंड मंडि,
चंडकर जानि प्रलय खंड ठहरत हैं॥
कोल कच्छ, कुंजर कहलि हलि काढ़ै खीस,
फननि फनीस कैं फुलिंग फहरत हैं।
मुद्रित तृतीय दृग रुद्र मुलकावैं मीड़ि,
उद्रित समुद्र अद्रि भद्र भहरत हैं॥
जाकी सत्यता में जग-सत्ता कौ समस्त सत्व,
ताके ताकि प्रन कौं अतत्व अकुलाए हैं।
कहै रतनाकर दिवाकर दिवस ही में,
झंप्यौ कंपि झूमत नछत्र नभ छाए हैं॥
गंगानंद आनन पै आई मुसकानि मंद,
जाहि जोहि बृंदारक-बृंद सकुचाए हैं।
पारथ की कानि ठानि भीषम महारथ की,
मानि जब बिरथ रथांग थरि थाए हैं॥
ज्यौंही भए बिरथ रथांग गहि हाथ नाथ,
निज प्रन-भंग की रही न चित चेत है।
कहै रतनाकर त्यौं संग हीं सखाहूँ कूदि,
आनि अर्यौ सौंहैं हाहा करत सहेत है॥
कलित कृपा औ तृपा द्विमग समाहे पग,
पलक उठ्यौई रह्यौ पलक-समेत है।
धरन न देत आगैं अरुझि धनंजन औ,
पाछैं उभय भक्त-भाव परन न देत है॥
- पुस्तक : रत्नाकर रचनावली (पृष्ठ 426)
- संपादक : कमलाशंकर त्रिपाठी
- रचनाकार : जगन्नाथदास रत्नाकर
- प्रकाशन : उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ
- संस्करण : 2009
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