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रूपविचित्रा का सौंदर्य

rupawichitra ka saundarya

जोधराज

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रूपविचित्रा का सौंदर्य

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    वर्षत रंग अनंग सु बाला।

    मनहुँ अनेक कमल की माला॥

    चंचल नैन चलैं चहुँ आसा।

    रूप सिंधु मनु मीन सु पासा॥

    घूँघट ओट दुरत प्रगटत यों।

    मनों ससि घटा दबत उघटत ज्यों॥

    बिलुलित बसन अंग दुति सोहै।

    निरखत सुर नर मुनि मन मोहै॥

    अलक सलक अतिसै चटकारी।

    अमी पियत ससि नागनि कारी॥

    छुटै गुलाल मुठी मृदु मुसकै।

    चूवै अधर बिंब रस चमकै॥

    करैं गान पसु पच्छी मोहैं।

    कहो जगत इन पटतर को है॥

    लै लै गैंद परसपर मेलैं।

    बाल बृंद मिलि-मिलि सुख झेलैं॥

    अध ऊरध चहुँ ओर सुमारैं।

    लजति खिजति लगि प्रेम प्रहारैं॥

    मंद पवन लगि चीर पर्यौ धर।

    कुच अंकुर उर मनहुँ उभै हर॥

    दमकति दिपति सलोनी दीपति।

    कामलता बिहरैं मनु गज गति॥

    लगत गैंद कंपित उर भागी।

    मंद मुसुकि ऋषि निकट सुपागी॥

    सुभन बृंद सौरभ उठि भारी।

    भ्रमर पुनीत गुँजार उचारी॥

    सरद उन्मद संधान सु किन्नौ।

    अति रिसि तानि स्रवन उर दिन्नौ॥

    छुटि समाधि ऋषि नैन उघारे।

    अति सकोपि सम्मर उर मारे॥

    चहुँ दिसि चितै चक्रित ऋषि भयऊ।

    लखि तिय बृंद अनंद सु भयऊ॥

    लीला गैंद फागु मिसि दौरी।

    हो-हो करत उठी बर जोरी॥

    बन अकेलि तिय पुरुष कोऊ।

    लीला अमित देखि दृग दोऊ॥

    रंग अपार डारि ऋषि ऊपर।

    कल-कल हंस बजत पद नूपर॥

    करैं कटाक्ष अनेक सु बाला।

    नैन सैन सर लगि चित चाला॥

    अंग-अंग गहि फाग सु मग्गै।

    परसि गात तब काम सु जग्गै॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : हम्मीररासो (पृष्ठ 26)
    • संपादक : श्याामसुंदर दास
    • रचनाकार : जोधराज
    • प्रकाशन : नागरीप्रचारिणी सभा, काशी
    • संस्करण : 1948

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