पुष्प-वाटिका प्रसंग (चार) : रामचरितमानस
pushpa-vaaTika prasa.ng (chaara) : raamachrit maanas
लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।
निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ॥
सोभा सींवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥
मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥
भाल तिलक स्रमबिंदु सुहाए। स्रवन सुभग भूषन छबि छाये॥
बिकट भृकुटि कच घूंघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥
चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला॥
मुख छबि कहि न जाइ मोहि हीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥
उर मनि माल कंबु कल ग्रीवाँ। काम कलभ कर भुज बल सीवाँ॥
सुमन समेत बाम कर दोना। साँवर कुँवर सखी सुठि लोना॥
उसी समय दोनों भाई लता-कुंज में से प्रकट हुए। मानो दो निर्मल चंद्रमा बादलों के पर्दे को हटाकर निकले हों।
दोनों सुंदर भाई शोभा की सीमा हैं। उनके शरीर नीले और पीले कमल की आभा वाले हैं। सिर पर सुंदर मोर पंख सुशोभित है। उनके बीच-बीच में फूलों की कलियों के गुच्छे लगे हैं।
माथे पर तिलक और पसीने की बूँदें सुशोभित हैं। कानों में सुंदर भूषण शोभा दे रहे हैं। भौंहें टेढ़ी और बाल घुँघराले हैं। नेत्र नवीन कमल के समान रतनारे हैं।
ठुड्डी, नाक और गाल बड़े सुंदर हैं। और हँसने का माधुर्य तो मानो मन को ख़रीद ही तो रहा है। मुझसे उनके मुख की छवि का वर्णन नहीं हो सकता, जिसे देखकर बहुत-से कामदेव लजा जाते हैं।
छाती पर मणियों की माला है। गला शंख की तरह सुंदर है। कामदेव के हाथी के बच्चे के सूँड की तरह बलवान् भुजाएँ हैं। बाएँ हाथ में फूलों-सहित दोना है। हे सखि! साँवला कुमार तो बहुत ही सलोना है।
- पुस्तक : श्री रामचरितमानस (पृष्ठ 149)
- रचनाकार : तुलसी
- प्रकाशन : लोकभारती
- संस्करण : 2017
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