उनके न तात-मात पीतम न जात कोऊ
unke na tat mat pitam na jat kou
उनके न तात-मात पीतम न जात कोऊ,
पुरुष अजात सब ही को सुख-मूर है।
आप नहिं काम कामपूरन तिहारे करे,
भक्तन की कामना ते आये इहाँ भूर है।
काहे पर ऐसे तुम बिरह बिलाप करो,
ईसुर तो सब ही में रहै भरपूर है।
जोग की समाधि साधि आप में विचार देखो,
आतम तुम्हारे कहा तुमही ते दूर हैं॥
- पुस्तक : प्रेमदीपिका, महात्मा अक्षरअनन्य कृत (पृष्ठ 21)
- संपादक : राय बहादुर लाला सिताराम
- रचनाकार : अक्षर अनन्य
- प्रकाशन : हिंदुस्तानी एकेडेमी, यू.पी
- संस्करण : 1878
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