उड़े जात हैं खंज ये कंज काँपै
uDe jat hain khanj ye kanj kanpai
ललिताप्रसाद त्रिवेदी
Lalitaprasad Trivedii
उड़े जात हैं खंज ये कंज काँपै
uDe jat hain khanj ye kanj kanpai
Lalitaprasad Trivedii
ललिताप्रसाद त्रिवेदी
और अधिकललिताप्रसाद त्रिवेदी
उड़े जात हैं खंज ये कंज काँपै,
जलै मीन ते दीन ह्वै अंग झाँपैं।
भले भौंर भूले भ्रमै नाग कारै,
सबै पद्म के पत्र हू जात जारै॥
भले कीर बेधीर ह्वै भीर भारी,
तिलौ फूल त्यागें हिये शूल धारी।
लता चंप की कंप की नाध नाधे,
गिरै श्रीफल सो महा बाँध बाँधे॥
पके बिंब ते ऊँच कै भूमि टूटैं,
थके दाड़िमै के सबै गात फूटें।
कहा मैन को दंड मोपै चढ़ाये,
हने बान तीखे सने सान धाये॥
कपैं केलि कैसे जपा फूल त्यागैं,
न रागैं कहूँ हंस के बंश भागैं।
कपोतौ थके से जके जोर हेरैं,
चके चक्रवाकौ चितै नैन फोरैं॥
मयूरौ महामंद ह्वै मानि हारी,
कहा कोकिला हू रही मौन धारी।
दिन में चकोरी रही चाह हेरी,
भई भाँति ऐसी भली बाग केरी॥
- पुस्तक : साहित्य प्रभाकर (पृष्ठ 439)
- संपादक : महालचंद बयेद
- रचनाकार : ललिताप्रसाद त्रिवेदी
- प्रकाशन : ओसवाल प्रेस कलकत्ता
- संस्करण : 1937
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