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विषम प्रताप जग ग्रीषम कौ फैल रह्यौ

wisham pratap jag grisham kau phail rahyau

हरिचरणदास

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विषम प्रताप जग ग्रीषम कौ फैल रह्यौ

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और अधिकहरिचरणदास

    विषम प्रताप जग ग्रीषम कौ फैल रह्यौ,

    नाह को कोई रूपी नज़र निहारि है।

    तरुन कौं छहरी छोड़ति दो पहरी में,

    नलनी विलौकी रही वाकि अंक धारि है॥

    सीत कैंधौ भीत ह्वै संजोगि निनरी मैं पैठ्यौ,

    बैठ्यौ कै दरी मैं कौन सकत संभारी हैं।

    हेतन सौं बधि है अचेतन निहारि धूप,

    चेतन कौ जाहि मीन केतन मारि है॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : मोहन लीला (पृष्ठ 54)
    • संपादक : कृपाशंकर तिवारी
    • रचनाकार : हरिचरणदास
    • प्रकाशन : रोशनलाल जैन एंड संस, जयपुर
    • संस्करण : 1973

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