सर सौं, सरोज सौं, सुधाकर सौं, सुक्र सौं
sar saun, saroj saun, sudhakar saun, sukr saun
सर सौं, सरोज सौं, सुधाकर सौं, सुक्र सौं
समीर सौं सदाई जाकै पास अनुसरि है।
अनुचर चातक सौं बगला कौ जातक सौं
भौंर सौं भलाई कहौ कैसे परिहरि है।
हाथी सौं, हरिन सौं, पानी को सौं अंग जाकौ
बन को बिहंग सो पै जाकी ढिग परि है।
देवीदास ऐसे भट बारह जौ बार होय
कहौ धौं बिचार जाकौ बैरी कहा करि है॥
ब्रह्म का वृक्ष रूप से परिचय दे रहे हैं−हे संतो! यह अखिल पृथ्वी वृक्ष (ब्रह्म) में समार्इ हुर्इ है। यह बात हमने आश्चर्य रूप कही है। इसे कौन भार्इ मानेगा और कौन विश्वास करेगा? उस वृक्ष के जड़ और शाखा नहीं है अर्थात् उसका कारण और कार्य कोर्इ नहीं है। यह आश्रय रहित अधर वृक्ष है, फिर उस पर माया रूप बेलि कैसे ठहर सकती है? यह वृक्ष तत्तव रूप स्वचा (छाल) से रहित है। इस अचल वृक्ष पर भोगाशा रूप पक्ष वाला जीव रूप पक्षी नहीं बैठ पाता कारण उस में इंद्रिय विषय रूप फूल फल नहीं हैं। त्रिगुण रूप गुंद इससे प्रकट नहीं होता। इस विशाल ब्रह्म वृक्षको कोर्इ बिरला ज्ञानी ही देख सकेगा। इसकी ब्रह्म−विचार रूप छाया में अज्ञान रूप अँधेरा नहीं भासता। इस कला विभाग रहित ब्रह्म वृक्ष में कर्म रूप काँटे नहीं होते। यह वृक्ष पूर्ण स्वरूप है। प्रति युग में निश्चल रहता है और सबके जीवन का मूल हेतु है।
- पुस्तक : राजनीति के कवित्त (पृष्ठ 62)
- संपादक : महेंद्रनाथ दुबे
- रचनाकार : देवीदास
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 1999
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