डीठि हू को भार जानि देखत न डीठि भरि
Dithi hu ko bhaar jani dekhat na Dithi bhari
डीठि हू को भार जानि देखत न डीठि भरि,
ऐसी सुकुमारी नैन प्रानहू ते प्यारी है।
माधुरी सहज कछू कहत न बनि आवै,
नेक ही के चितवन चकित बिहारी है॥
कौन भांति मुख की अनूप कांति सरसाति,
करत विचार तऊ जात न बिचारी है।
हित ध्रुव मन पर्यो रूप के भँवर मांझ,
नेह बस भये सुधि देह की बिसारी है॥
- पुस्तक : श्री बयालीस लीला (पृष्ठ 88)
- रचनाकार : ध्रुवदास
- प्रकाशन : श्री मुकुट महल, वृंदावन
- संस्करण : 1953
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