बूझि कै अबूझ ऊधौ होत ऐसी बूझियै रे
buujhi kai abuujh uudhau hot aisii buujhiyai re
बूझि कै अबूझ ऊधौ होत ऐसी बूझियै रे,
जो पै ऐसी बूझ तौ अबूझ किन बूझै जू।
झखत झुरत झखकेतऊ खिझावै झुकि,
तुम झुकवत झूठो जूझ कौन जूझै जू।
राजिव नयन मेरे आलम रहे कै ध्यान,
रीझ की रहनि में अबूझ कहा रूझै जू।
प्रगटि जुगति जाहि जीजियतु ऐसी सुनि,
भोग की भुगति पायें जोग काहि सूझै जू॥
गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव! जो समझकर भी अनजान बन जाए उसके लिए हम पूछती हैं कि उसमें ऐसी ज्ञानवत्ता है तो फिर अज्ञानी किसे कहेंगे? कामदेव तो हमें तंग करता है, कमज़ोर करता है तथा विनम्र होकर खीज उत्पन्न करता है। इस पर भी तुम हमसे विनयपूर्वक श्रीकृष्ण के प्रति अनुरक्त बनने को कहे जा रहे हो तो बताओ तुम्हारे इस प्रकार झूठेपन के भाव को कौन रखे। हे उद्धव! कमलनयन कृष्ण हमारे ध्यान में हमेशा ही समाए रहते हैं। उन्हें रिझाने की प्रक्रिया में अज्ञानता कहाँ पर आड़े आएगी, हम तो उन्हें ख़ुश करने में जाने व अनजाने में सब भाँति ही उदार हैं। कान्हा के प्रत्यक्ष होने पर जो अपने प्रेम के उपभोग की प्राप्ति कर लेते हैं, ऐसे लोगों को योग-साधना कैसे भली लग सकती है!
- पुस्तक : आलम ग्रंथावली (पृष्ठ 78)
- संपादक : विद्यानिवास मिश्र
- रचनाकार : आलम
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2015
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