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कौरै आनि झांकति हैं, काहू तें न सांकति है

kaurai aani jhankati hain, kahu ten na sankati hai

गिरिधर पुरोहित

गिरिधर पुरोहित

कौरै आनि झांकति हैं, काहू तें न सांकति है

गिरिधर पुरोहित

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    कौरै आनि झांकति हैं, काहू तें सांकति है,

    चहूँ ओर गेह की, गरीनि में फिरति हैं।

    ठाढ़ी रहैं पिछवारें, सांझ गिनै सकारै,

    बूझे सयानी बात काहू सौं करति हैं।

    आए नेह प्यारी मेरे गेह गिरिधारी पारी,

    एऊ आय बैठी, किनि काहू तें डरपति हैं।

    प्रेम भये लीन छीन, देह कौं काज त्यागे,

    भौंन ही के आसपास, भाँवरी भरति है॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : शृंगारमंजरी (पृष्ठ 70)
    • रचनाकार : गिरिधर पुरोहित
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 1982

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