कटै त्रय ताप दाप व्यापै भवभय की न
kaTai chaytaap Dhaap vyaapai bhavbhay kii n
कटै त्रय ताप दाप व्यापै भवभय की न,
कलुष नसात गन मिटत कलेस के।
सुबुधि बढ़ति मुख लालिमा चढ़ति चारु,
कुमति उठति तम देखे ज्यों दिनेस के॥
गोकुल कहत गुनगन सरसत बर,
मोद दरसत जस गावैं सब देस के।
धाम बीच बसै आइ कमला अचल ह्वै कै,
सेवत बिमल पदकमल गनेस के॥
- पुस्तक : चेतचंद्रिका (पृष्ठ 2)
- रचनाकार : गोकुलनाथ
- प्रकाशन : भारतजीवन प्रेस, बनारस
- संस्करण : 1894
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