कंचन सी काया ही सुकुंद कैसी होय गई
kanchan si kaya hi sukund kaisi hoy gai
कंचन सी काया ही सुकुंद कैसी होय गई,
सुंदर सिथिल अंग सम्हरै न डिग तें।
आलस बचन चल बिचल है आभूषन,
सकुचति मन-मन सुरति कों तिग तें॥
मेरे मन छाई है छबीली की यहै सुछबि,
छिन भरि छूटति न अजहूँ तो द्रिग तें।
रगमगी आँखियनि सगबगी अलकनि,
डगमगी डगनि डगरि चली ढिग तें॥
- पुस्तक : सुंदर शृंगार (पृष्ठ 9)
- प्रकाशन : रामकृष्ण वर्म्मा
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