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कबौं बीच आँगन

kabaun beech angan

मोहन

मोहन

कबौं बीच आँगन

मोहन

और अधिकमोहन

    कबौं बीच आँगन मैं खेलत हैं दौरि-दौरि,

    मातु-अंक-मध्य कबौं लोटत लमकि-लमकि।

    दूरि-दूरि देहरी तैं कबौं तिहुँ भ्रात-संग,

    बस्तु भयकारी देखि धावत चमकि-चमकि॥

    नाद घुँघरून-जुत मोहन महीपै गिरि,

    उठि-उठि बार-बार नाचत ठमकि-ठमकि।

    ऐसे रघुनाथ बाल-लीला के करनहार,

    कीजिये प्रकास नित्य मो उर दमकि-दमकि॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : मोहन-विनोद (पृष्ठ 10)
    • संपादक : कृष्णबिहारी मिश्र
    • रचनाकार : मोहन
    • प्रकाशन : इलाहाबाद लाॅ जर्नल प्रेस
    • संस्करण : 1935

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