कबौं बीच आँगन
kabaun beech angan
कबौं बीच आँगन मैं खेलत हैं दौरि-दौरि,
मातु-अंक-मध्य कबौं लोटत लमकि-लमकि।
दूरि-दूरि देहरी तैं कबौं तिहुँ भ्रात-संग,
बस्तु भयकारी देखि धावत चमकि-चमकि॥
नाद घुँघरून-जुत मोहन महीपै गिरि,
उठि-उठि बार-बार नाचत ठमकि-ठमकि।
ऐसे रघुनाथ बाल-लीला के करनहार,
कीजिये प्रकास नित्य मो उर दमकि-दमकि॥
- पुस्तक : मोहन-विनोद (पृष्ठ 10)
- संपादक : कृष्णबिहारी मिश्र
- रचनाकार : मोहन
- प्रकाशन : इलाहाबाद लाॅ जर्नल प्रेस
- संस्करण : 1935
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