जिन जान्यो वेद, ते तो बाद कै विदित होहु
jin jaanyo bed, te to baad kai vidit hohu
जिन जान्यो वेद, ते तो बाद कै विदित होंहि,
जिन जान्यो लोक तेऊ लीक पै लरि मरौ।
जिन जान्यौ तपु तीनों तापन सौं तपौ-जिन,
पंचागिनी साध्यो ते समाधिन परि मरौ॥
जिन जान्यो जोग ते वै जोगी जुग-जुग जियौ,
जिन जान्यौ जोति तेऊ जोति लै जरि मरौ।
हौं तो देव नंद के कुमार तेरी चेरी भई,
मेरो उपहास क्यों न कोटिन करि मरौ॥
जो वेदों के ज्ञाता होते हैं वे अनेक वादों, सिद्धांतों की बात भले ही कहते रहें। लोकाचार की परंपरा का पालन करने को महत्वपूर्ण मानने वाले लोग उसके पक्ष में भले ही तर्क दिया करें। जो तप करते हैं वे तीनों प्रकार के—दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से परेशान होकर भले ही पंचाग्नि में तप कर समाधि लगाया करें। जो योग को महत्व देने वाले हैं वे योगी युग-युग तक जीवित रहें, उनका भला हो। मुझे इन सभी से कोई लेना-देना नहीं है। जो परम तत्व की ज्योति का साक्षात्कार या अनुभव करने वाले हैं वे उस परम तत्व के ज्ञान या अनुभव को अपने पास रखें। मुझे उससे भी मतलब नहीं है। देवकवि वर्णन करते हैं कि गोपिका कहती है कि हे नंद के लाल कृष्ण! मैं तो तेरी दासी हो गई हूँ। अब करोड़ों लोग भले ही मेरा उपहास करते रहें, तो भी मैं अपना निश्चय नहीं बदल सकती।
- पुस्तक : देव सुधा (पृष्ठ 117)
- संपादक : मिश्र बंधु
- रचनाकार : दे
- प्रकाशन : गंगा पुस्तक भाला
- संस्करण : 1945
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