एकै अभिलाख लाख-लाख भाँति लेखियत
ekai abhilakh lakh lakh bhanti lekhiyat
एकै अभिलाख लाख-लाख भाँति लेखियत,
देखियत दूसरो न देव चराचर मैं।
जासों मनु राचै तासों तनु-मनु राचै, रुचि
भरि कै उघरि जाँचै साँचै करि कर मैं॥
पाँचन के आगे आँच लागे ते न लौटि जाय,
सांच देइ प्यारे की सती लौ बैठि सर मैं।
प्रेम सो कहत कोई ठाकुर न ऐंठौ, सुनि
बैठो गड़ि गहिरे तो पैठौ प्रेम-घर मैं॥
प्रेम करने वाले में एक ही अभिलाषा रहती है। उसी पर वह लाखों तरह से सोचता, विचार करता है। प्रेम की अभिलाषा रखने वाले की-सी स्थिति चर और अचर में किसी की नहीं दिखाई देती। प्रेमी का जिससे मन मिलता है उसके प्रति प्रेमी अपनी तन, मन सब लगा देने को तैयार रहता है। वह प्रेम-पात्र को प्राप्त करना चाहता है। वह सँभल-सँभलकर जाँच करता है और पूर्ण आश्वस्त होना चाहता है। वह लोगों के सामने लज्जित होने के डर से अपना प्रयास नहीं छोड़ता है। अपने प्रेमपात्र के लिए वह वैसा ही करने के लिए तैयार रहता है जैसे कि कोई सती अपने प्रिय पति के लिए चिता में बैठ जाती है। सच्चे प्रेम से युक्त व्यक्ति ऐंठ नहीं दिखाता। वह तो गहरे में डूबता जाता है। उसमें छिछलापन, दिखावा नहीं होता है। जिसमें ऐसी विशेषताएँ हो, वह प्रेम के घर में प्रवेश कर सकता है।
- पुस्तक : देव सुधा (पृष्ठ 104)
- संपादक : मिश्र बंधु
- रचनाकार : देव
- प्रकाशन : गंगा पुस्तक भाला
- संस्करण : 1945
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