एक ऊगे सूर कर भोजन कपूर पूर
ek uge soor kar bhojan kapur poor
एक ऊगे सूर कर भोजन कपूर पूर,
एक को तो पेट पूर भाजीहु न ताजी है।
एक नर गाजी चढ़ि चलत चपल बाजी,
एक पाजी आगे दौर दौरिबे ही राजी हैं॥
एक तो 'किसन' लछी देखी लछमीहु लाजी,
एक धन हीन मसकीन दीन माँजी है।
कही न परति कुदरति ऐसी कारसाजी,
अपने अपने यारों बखत की बाजी है॥
- पुस्तक : साहित्य प्रभाकर (पृष्ठ 208)
- संपादक : महालचंद बयेद
- रचनाकार : किशन
- प्रकाशन : ओसवाल प्रेस कलकत्ता
- संस्करण : 1937
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