तेरे देखिवे कों सबही त्यों अनदेखी करो
tere dekhiwe kon sabhi tyon andekhi karo
तेरे देखिवे कों सबही त्यों अनदेखी करो,
तू हू जो न देखे तौ दिखाऊँ काहि गति रे।
सुनि निरमोही एक तोही सों लगाव मोही,
सोही कहि कैसें ऐसी निठुराई अति रे।
विष सी कथानि मानि सुधा पान करौं जान,
जीवन-निधान ह्वै बिसासी मारि मति रे।
जाहि जो भजे सो ताहि तजे घनआनँद क्यों,
हति कै हितूनि कहो काहू पाई पति रे?
ऐ प्रिय, तेरे ही देखने के लिए मैंने तेरे अतिरिक्त और सबको देखना छोड़ दिया। इससे मेरी जो बुरी गति हो रही है उसे यदि तू नहीं देखता तो किसे दिखाऊँ। ऐ निर्मोही, मेरे संबंध केवल तुझसे हैं। जो जिससे इस प्रकार का एकनिष्ठ प्रेम करता हो क्या उसके प्रति ऐसी अधिक निष्ठुरता उसी प्रिय के लिए शोभन है। जो कनबतियाँ ज़हर-सी चारों ओर फैली है उन्हें अमृत मानकर मैं पी रहा हूँ। ऐ सुजान, तू जीवन का अवलंब है, मुझसे विश्वासघात कर मुझे मार मत डाल। ऐसा अन्यत्र नहीं देखा गया कि जो किसी को भजता है उसे ही भज जाने वाला छोड़ दे। ऐ आनंद के घन, अपने हितों को मारकर किसी की प्रतिष्ठा रही है? (कदापि नहीं)। यदि आप मेरे कष्ट से आकृष्ट नहीं होते तो अपनी प्रतिष्ठा के ही लिए आप ऐसा अनुचित कार्य न करें।
- पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 234)
- संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
- रचनाकार : घनानंद
- प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
- संस्करण : 1972
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