सुखनि समाज साज सजे तित सेवैं सदा
sukhani samaj saj saje tit sewain sada
सुखनि समाज साज सजे तित सेवैं सदा,
जिस नित नए हित-फंदनि गसत हौ।
सुख-तम-पुंजनि पठाय दै चकोरनि पै,
सुधाधर जान प्यारे भलें ही लसत हौ।
जीव सोच सखै गति सुमिरें अनंदघन,
कितहूँ उधरि कहूँ धुरि कै रसत हौ।
उजरनि बसी है हमारी अँखियानि देखौ,
सुबस सुदैस जहाँ भावते बसत हौ॥
हे सुजान प्रिय, जहाँ आप जा बसे हैं और नित्य नए-नए प्रेमियों को अपने प्रेमपाश में फँसाने के लिए फंदे डालते रहते हैं वहाँ सुखों के समाज के समाज पूरी साज-सज्जा के सहित आपकी सदा सेवा करके रहते हैं। आप कैसे सुधाधर हैं कि आपने सुख का प्रकाश तो केवल अपने लिए ही रख लिया है और दु:ख के अंधकार का पुंज का पुंज अपने प्रेमी चकोरों के पास भेज दिया है। यह कृत्य करके आप अच्छे सुशोभित हो रहे हैं। आप हैं तो आनंद के घन पर आपकी गतिविधि का स्मरण करने पर उसके सोच से प्राण सूख जाते हैं। इतना ही नहीं, आप कहीं तो (मुझ जैसे प्रेमियों के यहाँ से) दूर चले गए हैं और कहीं (जहाँ आप नए-नए प्रेमी फँसाते हैं) जमकर रसवृष्टि कर रहे हैं। हमारी आँखों में देखिए, केवल उजड़न बसी हुई है और हे रुचने वाले प्रिय! जहाँ आप हैं, वह सुंदर देश भली भाँति बसा है।
- पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 201)
- संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
- रचनाकार : घनानंद
- प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
- संस्करण : 1972
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