राति-द्यौस कटक सजे हो रहे दहे दु:ख
rati dyaus katak saje ho rahe dahe duhakh
राति-द्यौस कटक सजे हो रहे दहे दु:ख,
कहा कहीं गति या वियोग बजमारे की।
लियौ घेरि औचक अकेलो कै बिचारो जीव,
कछु न बसाति यौं उपाय-बल-हारे की।
जान प्यारे लागौ न गुहार तौ जुहार करि,
जूझिहै निकसि टेक गहें पन धारे को।
हेत-खेत घूरि चूर-चूर ह्वै मिलेगो तब,
चलैगी कहानी घनआनँद तिहारे की॥
हे सुजान प्रिय, इस बजमारे वियोग की गति-विधि क्या बताऊँ। यह तो रात-दिन सेना सजाए हुए जी को घेरकर दु:ख से जलाता ही रहता है। इसने जी को एक तो अचानक आ घेरा है, दूसरे अकेले में घेरा है, जब कोई सहायक नहीं था तब घेरा है। बेचारे जी का कुछ भी वश नहीं चल रहा है। यदि आप अब इसकी गुहार नहीं सुनते तो इसने तो फिर जौहर व्रत करने की ठानी है। यह शरीर से बा्हर निकल कट मरेगा। जो प्रतिज्ञा इसने कर रखी है उसकी टेक को कभी न छोड़ेगा। प्रेम के क्षेत्र की धूल में यह चूर्ण-विचूर्ण होकर मिल जाएगा। तब आपके किए की कहानी चलेगी, लोग आपको ताने देंगे कि आप ही की करनी से इस प्रकार उसे मर मिटना पड़ा।
- पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 210)
- संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
- रचनाकार : घनानंद
- प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
- संस्करण : 1972
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