अधिक बधिक तें सुजान रीति रावरी हे
adhik badhik ten sujan riti rawri he
अधिक बधिक तें सुजान, रीति रावरी हे,
कपट-चुगी दै फिरि निपट करौ बुरी।
गुननि पकरि लै, निपाँख करि छोरि देहु,
मरहि न जियै, महा बिषम दया-छरी॥
हौं न जानौं, कौन धौं हो यामैं सिद्धि स्वारथ की,
लखी क्यौं परति प्यारे अंतरकथा दुरी।
कैसें आसा-द्रुम पै बसेरो लहै प्रान-खग,
बनक-निकाई घनआनँद नई जुरी॥
हे प्रिय सुजान, आपकी प्रेमियों को फँसाने की रीति बहेलिए से भी बढ़कर दिखाई देती है। आप कपट-पूर्वक अपनी ओर आकृष्ट करके फिर परांगमुखता द्वारा विशेष कष्ट देते हैं। बहेलिया गुणों से (जाल में) फँसाता है, आप भी गुणों से (विशेषताओं से) आकृष्ट करते हैं। वह पंख कतरकर छोड़ देता है, आप भी प्रेमी की अन्य किसी पक्ष से रहित कर देते हैं। आपकी दया ऐसी है कि न मरने में न जीने में। आपने दया यह की कि मारा नहीं। आप जो इस प्रकार की दया दिखाते हैं या पकड़ते तथा पक्षहीन करते हैं इसमें आपके किस स्वार्थ की सिद्धि होती है, कुछ भी पता नहीं चलता। न अर्थ की सिद्धि, न उदर की पूर्ति और न लोकमान्यता ही कि इन्होंने बड़ा अच्छा शिकार किया। आपकी अंतरकथा की रहस्यात्मक वृत्ति है। यदि कहा जाए कि पक्षी को स्वयं सावधान रहना चाहिए, उसे आकृष्ट ही न होना चाहिए तो भला वह बेचारा आशा के वृक्ष पर अपने प्राणों को कब तक टिकाए रहे, जब वह देखता है कि अत्यंत आनंददायिनी नई छटा सामने आ इकट्ठी हुई है। वह तो सौंदर्य को देखकर खिंच ही जाता है।
- पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 243)
- संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
- रचनाकार : घनानंद
- प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
- संस्करण : 1972
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