औरै भांति कुंजन में गुंजरत भौंर-भीर
aurai bhanti kunjan mein gunjrat bhaunr bheer
औरै भांति कुंजन में गुंजरत भौंर-भीर,
औरै डौर झौंरन में बौरन के ह्वै गये।
कहै पद्माकर, सु औरै भाँति गलियान,
छलिया छबीले छैल औरै छवि छ्वै गयै॥
औरै भाँति बिहंग-समाज में आवाज़ होति,
ऐसे ऋतुराज के न आज दिन द्वै गये।
औरै रस औरै रीति औरै राग औरै रंग,
औरै तन औरै मन औरै वन ह्वै गयै॥
लता-कुंजों में भौरों के झुंड अब अलग प्रकार से गुंजन करने लगे हैं और आम की मंजरियों के गुच्छों में भी अनोखी मादक-गंध व्याप्त हो गई है। पद्माकर कवि कहते हैं कि इस मनोरम काल में गलियों में छलिया नायक विशिष्ट शोभा को धारण कर रहे हैं तथा उनकी रसिकता भी अनोखी व्यक्त हो रही है। अब पक्षियों के झुंड भी बड़ी सुंदर कलरव ध्वनि करने लग गए हैं। अभी ऋतुराज बसंत के दो दिन भी नहीं बीते हैं, तो भी सब ओर आनंद, क्रिया-कलाप, राग एवं रंग कुछ अन्य ही हो गया है। प्राणियों के तन और मन भी और ही प्रकार के हो गए हैं तथा वनों की प्राकृतिक शोभा भी अनोखी लग रही है। इस प्रकार सब तरह एवं सभी पदार्थों में बसंत ने अपने वैभव का प्रसार कर दिया है।
- पुस्तक : पद्मावत पंचामृत (पृष्ठ 158)
- संपादक : विश्वनाथप्रसाद मिश्र
- रचनाकार : पद्माकर
- प्रकाशन : श्री रामरत्न पुस्तक भवन, काशी
- संस्करण : 1992
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