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केशोदास प्रथमहि उपजत भय भीरु

keshodas prathamahi upjat bhay bhiru

केशवदास

केशवदास

केशोदास प्रथमहि उपजत भय भीरु

केशवदास

और अधिककेशवदास

    केशोदास प्रथमहि उपजत भय भीरु,

    रोष रुचि स्वेद देह कंप गहत हैं।

    प्राण प्रिय बाजी कृत बारन पदाति क्रम,

    बिबिध शबद द्विज दानहि लहत हैं॥

    कलित्र कृपा कर सकति सुमान त्रान,

    सजि सजि करज प्रहारन सहत हैं।

    भूषन सुदेश हार दूषन सकल होत,

    सखि सुरति रीती, समर कहत हैं॥

    पहले तो भीरुता से भय पैदा होता है, फिर जब नायक साहस से हाथ पकड़ ही लेता है तब शरीर स्वेद तथा कंप भाव धारण करता है। पुन: बाजीकरण से पुष्ट नायक नहीं नहीं करते रहने पर भी पैरों को उठाकर अपने जंघों पर रखता है, तब अनेक प्रकार के शब्द (नूपुरादि के अथवा सीत्कार से) होने लगते हैं। दाँतों से अधर खंडन होता है, नायक के हाथ निर्दय हो जाते हैं और ज़ोर-ज़ोर से वह कुच मर्दन करता है तथा अपनी शक्ति भर प्रिया की प्रशंसा करता जाता है जिससे वह अप्रसन्न हो। स्त्री के कुच ख़ूब नख प्रहार सहते हैं। उस समय बजने वाले सुंदर भूषण (किंकिणी और नूपुरादि) और आलिंगन में बाधक हार सब बुरे लगते हैं। हे सखी! सुरति की यह रीति उत्तम होती है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रिया-प्रकाश (पृष्ठ 101)
    • संपादक : लाला भगवान 'दीन'
    • रचनाकार : केशवदास
    • प्रकाशन : संजय बुक सेंटर, गोलघर, वाराणसी
    • संस्करण : 1981

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