आयी रितु पावस, न आये प्रान-प्यारे या तें
aayi ritu pawas, na aaye pran pyare ya ten
आयी रितु पावस, न आये प्रान-प्यारे या तें
मेघनि बरजि आली! गरजि सुनावैं ना।
दादुरनि कहि, बकि-बकि जनि फोरैं कान,
पिकनि हटकि, हठि सबद सुनावैं ना॥
बिरह-बिथा में हौं तो ब्याकुल परी हौं, देव
जुगनू चमकि चित चिनगी लगावैं ना।
चातक न गावैं, मोर सोर न मचावैं, घन
घुमड़ि न आवैं, जौ लौं कान्ह घर आवैं ना॥
विरहिणी नायिका सोचती है कि ग्रीष्म ऋतु के बीतने पर अब तो वर्षा ऋतु भी आ गई है किंतु प्राण प्यारे मेरी दयनीय दशा का ध्यान रखकर अभी तक नहीं आए। मैं अकेली ही रह गई। विरहिणी अपनी सखी से कहती है कि इसी कारण तू बादलों को रोक दे, फटकार दे कि वे यहाँ अपनी गर्जना न सुनाएँ। तू मेंढकों से कह दे कि वे बकवास कर-कर के मेरे कान न फोड़ें। उनकी आवाज़ मेरे कानों को पीड़ा पहुँचाती है। तू कोयलों को हटक दे, रोक दे कि वे ज़िद करके यहाँ अपनी मधुर कूक न सुनाएँ। मैं तो वैसे ही विरह-व्यथा के कारण परेशान हूँ इस पर भी जुगुनू चमक-चमककर मेरी व्यथा में और आग लगा रहे हैं। उससे कह कि वे ऐसा न करें, यहाँ न चमकें। यहाँ पपीहे न बोलें, मोर भी शोर न मचाएँ। यहाँ बादल घुमड़कर न आने पाएँ। तू इन सबको तब तक यहाँ मत आने और बोलने दे जब तक कि मेरा प्रियतम वापस न आ जाए।
- रचनाकार : देव
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