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राखति न दोषै पोषै पिंगल के लच्छन कौं

raakhati n doshai poshai pi.ngal ke lachchhan kau.n

सेनापति

सेनापति

राखति न दोषै पोषै पिंगल के लच्छन कौं

सेनापति

राखति दोषै पोषै पिंगल के लच्छन कौं,

बुध कवि के जो उपकंठ ही बसति है।

जोए पद मन कौं हरष उपजावति है,

तजै को कनरसै जो छंद सरसति है॥

अच्छर हैं बिसद करति उषै आप सम,

जातैं जगत की जड़ताऊ विनसति है।

मानौं छबि ताकी उदवत सबिता की सेना—

पति कबि ताकी कबिताई बिलसति है॥

जिस कवि की कविता दोषरहित हो, छंदशास्त्र के लक्षणों से युक्त हो, उनका पालन करने वाली हो, वही कविता विद्वान कवियों के कंठ में निवास किया करती है। जिस कविता के पद, मन में हर्ष उत्पन्न करने वाले हों, जो छंद युक्त हो, रस को उत्पन्न करने वाली हो, उसे अपने कानों से दूर कौन रखना चाहेगा! जिस कविता के अक्षर विशद हों, स्पष्ट भाव व्यक्त करने वाले हों, अर्थ को ऐसा उत्कर्ष प्रदान करने वाले हों कि पढ़ने वाले की जड़ता दूर हो जाए और जिसकी शोभा उदित होते हुए सूर्य के समान हो; वही कविता सुंदर, आनंदप्रद, अच्छी कही जा सकती है।

स्रोत :
  • पुस्तक : कवित्त रत्नाकर (पृष्ठ 3)
  • रचनाकार : सेनापति
  • प्रकाशन : हिंदी परिषद् प्रकाशक, प्रयाग
  • संस्करण : 1971

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