सौज ब्रज चंद पै चली यों मुखचंद जा को
sauj braj chand pai chali yon mukhchand ja ko
सजि ब्रजचंद पै चली यों मुखचंद जा को,
चंद चाँदनी को मुख मंद-सो करत जात।
कहै ‘पद्माकर’त्यों सहज सुगंध ही के,
पुंज बन-कुंजन में कंज-से भरत जात॥
धरति जहाँई जहाँ पग है पियारी तहाँ,
मंजुल मजीठ ही की माठ-सी ढुरत जात।
हारन तें हीरे ढरैं सारी की किनारन तें,
बारन तें मुकता हज़ारन झरत जात॥
श्रीकृष्ण से मिलने के लिए जब राधा चली, तो उस समय उसका मुखरूपी चंद्रमा इतना सुंदर लगने लगा कि वह अपनी आभा से चंद्रमा की चाँदनी की आभा को भी फीका करने लगा। पद्माकर कवि कहते हैं कि उसके शरीर की स्वाभाविक सुगंध की राशि से वन और कुंजों में जैसे कमलों की सुगंध भरने लगी थी। वह प्यारी राधिका जहाँ-जहाँ अपने कदम रखने लगी, वहाँ-वहाँ सुंदर मजीठ के घड़े ही ढुलकने लगे। उसकी साड़ी के किनारों के हिलने से अनेक हीरे तथा हृदय में पहने हार से हज़ारों मोती झरते हुए दिखाई देने लगे। यानी साड़ी पर खचित सलमे-सितारों के साथ हीरे झिलमिला रहे थे, तो छाती के हार पर मोती चमक रहे थे।
- पुस्तक : पद्मावत पंचामृत (पृष्ठ 134)
- संपादक : विश्वनाथप्रसाद मिश्र
- रचनाकार : पद्माकर
- प्रकाशन : श्री रामरत्न पुस्तक भवन, काशी
- संस्करण : 1992
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