जासों प्रीति ताहि निठुराई सौं निपट नेह
jason priti tahi nithurai saun nipat neh
जासों प्रीति ताहि निठुराई सौं निपट नेह,
कैसें करि जिय की जरनि सो जताइयै।
महा निरदई, दई कैसैं कैं जिवाऊँ जीव,
बेदन की बढ़वारि कहाँ लौं दुराइयै।
दु:ख को बखान करिबे कौ रसना कैं होति,
ऐपै कहूँ बाको मग्व्र देखन न पाइयै।
रैन-दिन चैन को न लेस कहू पैयै, भाग,
आपने ही ऐसे, दोष काहि धौं लगाइयै॥
वियोगिनी नायिका अपने प्रति नायक के द्वारा किए गए अकारण निष्ठर व्यवहार पर क्षोभ प्रकट करती हुई अपने भाग्य को कोसती है। वह कह रही है कि मुझे जिससे प्रेम है, उसे मुझ से प्रेम न होकर निर्दयता से प्रेम है अर्थात् वह बड़ा निर्दयी है। ऐसा न होता तो वह मेरी विरह-व्यथा का अनुभव कर लेता और मेरे पास आ जाता। भाव यह है कि जिससे मुझे प्रेम है, उसे निष्ठुरता के प्रति अत्यधिक अनुरक्ति है फिर किस प्रकार हृदय की वेदना को व्यक्त करूँ या बतलाऊँ? प्रियतम अत्यंत निर्मम है, हे देव! फिर किस तरह मैं अपने प्राणों को जीवित रखूँ? निरंतर बढ़ती हुई विरह-वेदना को कब तक छिपाकर रखूँ? भाव यह है कि और तो और दु:ख का यथा-तथ्य वर्णन करने के लिए यदि जिह्वा समर्थ होती तब तो एक बात भी थी, उस दशा में कुछ न कुछ वेदना तो व्यक्त कर सकती थी, किंतु वेदना के आधिक्य के कारण जिह्वा मौनावस्था को प्राप्त कर चुकी है। अतः अपना कार्य करने में असमर्थ है। इतने पर भी निष्ठर प्रिय के मुख का दर्शन कभी नहीं होता और परिणमस्वरूप दिन-रात किसी भी समय, किसी भी स्थान पर, आराम अंश मात्र भी नहीं मिलता। भाव यह है कि पता नहीं इसमें दोष उस प्रिय का है अथवा अपना भाग्य ही ऐसा है जिसमें कष्ट उठाना ही लिखा हो। कुछ समझ में नहीं आता कि किसे दोष दिया जाए!
- पुस्तक : घनानंद कवित्त (प्रथम आनन) (पृष्ठ 69)
- संपादक : चंद्रशेखर मिश्र ‘शास्त्री’
- रचनाकार : घनानंद
- प्रकाशन : वाणी वितान
- संस्करण : 1972
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