हीन भएँ जल मीन अधीन
hiin bha.e.n jal miin adhiin
हीन भएँ जल मीन अधीन कहा कछु मो अकुलानि-समानै।
नीर-सनेही कों लाय कलंक, निरास ह्वै कायर त्यागत प्रानै।
प्रीति की रीति सू क्यों समुझै जड़, मीत के यानि परे कों प्रमानै।
या मन की जु दसा घनआनंद जीव की जीवनि जान ही जानै॥
पानी में रहने पर भी मछली अपना प्रेम निभाने में असफल रहती है। वह तो पानी से अलग होते ही मर जाती है, वह मेरे समान प्रेम में आकुल नहीं होती है। एक प्रकार से वह अपने प्रेमी जल को कलंकित करती हुई निराश होकर मर जाती है। वह एकदम कायर है, इस कारण थोड़ी-सी भी विरह-व्यथा मिलने पर कायरता से अपने प्राण त्याग देती है। वैसे भी मछली बुद्धिहीन और नासमझ है, इसलिए वह प्रेम-निर्वाह की परंपरा को क्या समझ सकती है? वह तो ज़रा-सी वियोग-व्यथा मिलने पर अपने प्रेमी पानी को छोड़कर मर जाती है। वह अपने प्रिय पानी में रहने को ही प्रेम का प्रमाण मानती है, परंतु सुजान प्रियतमा के विरह में मेरे मन की जो व्याकुल दशा हो रही है, उसे कोई नहीं जान सकता है। उसे प्राणों को जिलाने वाली सुजान जानती है। अर्थात् सुजान के कारण जो विरह-व्यथा भोगनी पड़ रही है, वह अप्रतिम है।
- पुस्तक : घनानंद कवित्त (प्रथम आनन) (पृष्ठ 76)
- संपादक : चंद्रशेखर मिश्र ‘शास्त्री’
- रचनाकार : घनानंद
- प्रकाशन : वाणी वितान
- संस्करण : 1972
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