भए अति निठुर, मिटाय पहिचानि डारी
bhae ati nithur, mitay pahichani Dari
भए अति निठुर, मिटाय पहिचानि डारी,
याही दु:ख हमैं जक लागी हाय हाय है।
तुम तौ निपट निरदई, गई भूलि सुधि,
हमैं सूल-सेलनि सो क्यों हूँ न भुलाय है।
मीठे-मीठे बोल बोलि, ठगी पहिलें तो तब,
अब जिय जारत, कहौ धौं कौन न्याय है।
सुनी है कै नाहीं, यह प्रकट कहावति जू,
काहू कलपाय है, सु कैसें कल पायहै॥
हे प्रिय! तुम तो बहुत कठोर हृदय हो गए हो और मेरी अपने साथ पहचान को भी तुमने मिटा दिया है, इसी दु:ख के कारण मुझे हाय-हाय की रटना लगी हुई है। पुनः तुम तो अत्यंत निर्मम हो, इसी से मेरी सुधि को भुला दिया है, किंतु मुझे बरछे की चुभन के समान यह विरह-वेदना न जाने क्यों नहीं भूल पाती है अथवा विरह-वेदना की कसक को मैं भुलाने पर भी न जाने क्यों नहीं भूल पाती हूँ। संयोग के क्षणों में पहले तो अपनी मधुर वाणी से तुमने मुझे ठग लिया अर्थात् भुलावे में डालकर अपनी ओर आकृष्ट कर लिया और अब दूर होकर हृदय को जलाते रहते हो, पीड़ा पहुँचाते रहते हो, भला यह कहाँ का और कौन-सा न्याय है? हे प्रियतम! तुमने यह प्रसिद्ध कहावत सुनी है अथवा नहीं कि जो किसी को तरसाता है, पीड़ा पहुँचाता है, उसे किसी भी प्रकार शांति अथवा चैन प्राप्त नहीं होता है।
- पुस्तक : घनानंद कवित्त (प्रथम आनन) (पृष्ठ 73)
- संपादक : चंद्रशेखर मिश्र ‘शास्त्री’
- रचनाकार : घनानंद
- प्रकाशन : वाणी वितान
- संस्करण : 1972
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