रूचिर बरन चीरु चंदन चरचि सुचि
ruchir baran chiru chandan charachi suchi
रूचिर बरन चीरु चंदन चरचि सुचि,
सरदु को चंद चाहि चितहिं धरत हैं।
बिबिध बिलास बसि रास ब्रजपति प्यारे,
तेई ब्रज बतियाँ उचित उचरत हैं।
‘आलम’ सुकबि अब वैसे कान्ह ऐसे भए,
उतहिं लुभाने किधौं इतहिं ढरत हैं।
मधुबन बसत मधुर मुरली की धुनि,
मधुप कबहुँ माधौ सुरति करत हैं॥
सुंदर रंग के वस्त्र पहन कर व शरीर पर चंदन लगाकर हम भी कृष्ण को शरद ऋतु के चंद्रमा के समान चाहती हुई हृदय में धारण करती हैं। वे हमारे साथ अनेक प्रकार की प्रेम-क्रीड़ा करते हैं व रास रचाते हैं। उन्हीं कृष्ण की बातें ब्रज में सुनी जाती हैं। उनके रास-विलास को हम भूल नहीं सकतीं। लेकिन वे ही कृष्ण अब कैसे हो गए? वे उधर मथुरा में ही लुभा गए हैं या उनका मन कभी इधर भी ढलकता है? अब तो उनकी मुरली की मधुर धुन मथुरा में ही गूँजती है। हे उद्धव! क्या कृष्ण वहाँ हमें भी याद करते हैं?
- पुस्तक : आलम ग्रंथावली (पृष्ठ 75)
- संपादक : विद्यानिवास मिश्र
- रचनाकार : आलम
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2015
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