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ज़िंदगी का लेखा

zindagi ka lekha

मदनलाल डागा

मदनलाल डागा

ज़िंदगी का लेखा

मदनलाल डागा

और अधिकमदनलाल डागा

    मैंने तेरी अलकों को नहीं

    अपनी उलझनों को सुलझाया है!

    अपने बच्चों को नहीं

    साहबज़ादों को दुलराया है!

    तब तुम्हें मुझसे

    शिकायत होना वाज़िब है

    जब साहब को भी शिकायत है!

    मैंने प्रेम-पत्र नहीं

    आवेदन-पत्र लिखे हैं!

    तेरी आँखों का नहीं

    साहब की आँखों का रंग देखा है

    यही तो मेरी ज़िंदगी का लेखा है!

    घर से जाने से पहले

    जब जब तेरी आँख भर आई है

    मैंने साहब की डाँट खाई है

    यही तो मेरे जीवन की कमाई है!

    तू माने मान, सच कहता हूँ

    जीवन-संगी तेरा

    साहब के संग रहता हूँ!

    कामचोर ही होता

    तो बंगले पर काम क्यूँ करता?

    बेहया होता तो मैम साहब से क्यूँ डरता?

    तू जब-जब रोती है

    बरसाती मोती है

    शिकार तो मेरी ही ‘कैजुअल लीव' होती है!

    नौकरी जो भी करता है

    कहलाता नौकर है!

    ग़रीब की ज़िंदगी

    क्या साहब की ठोकर है?

    स्रोत :
    • पुस्तक : आँसू का अनुवाद (पृष्ठ 65)
    • रचनाकार : मदनलाल डागा
    • प्रकाशन : संगम प्रकाशन
    • संस्करण : 1973

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