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यों वे मेरे आँगन आए

yon ve mere angan aaye

अनुवाद : हरिभजन सिंह

हरनाम सिंह नाज़

हरनाम सिंह नाज़

यों वे मेरे आँगन आए

हरनाम सिंह नाज़

और अधिकहरनाम सिंह नाज़

    ज्यों भविष्य पाहुना बनकर

    वर्तमान-ऊजड़-आँगन में

    एक अल्प-झाँकी हित आए

    यों वे मेरे आँगन आए

    अनावृष्टि मारी धरती पर

    मंद-मंद घिर आए बादल

    बीज-भरी धरती को जैसे

    स्वप्न हरित-सा कोई आए

    उषा-समीरण का मृदु झोंका

    धरती की दुखती काया से

    चुभन चीस सब चुगता जाए

    निज झोली में रखता जाए

    सस्सी के छालों के नीचे

    जाग पड़े ज्यों शीतल निर्झर

    ज्यों फरहाद के तेशे सम्मुख

    पर्वत स्वयंमेव हट जाए

    देख थका-माँदा दिन जैसे

    सांध्य-सुंदरी सेज बिछाए

    ज्यों ऊषा की कर्णपटी तक

    सुंदर किरण कोई लहराए

    ज्यों विधवा की अर्ध-सुप्ति में

    पुनर्मिलन की कोंपल फूटे

    स्वप्न बीच आलिंगन पाकर

    चूम-चूम निज नूर बढ़ाए

    शत-शत युग आए औ’ बीते

    तब वे मेरे आँगन आए

    इंद्रपुरी की कोई अप्सरा

    जैसे मर्त्यलोक अपनाए

    आज मेरा गृह भाग्यशाली है

    आज मेरा गृह स्वयंमपि मुखरित

    आज मेरा गृह स्वयंमपि नाचे

    आज मेरा गृह स्वयंमपि गाए

    आज मेरे आँगन के अंदर

    सदियों सोए चूड़े छनके

    कोई मेघ समान चूनरी

    प्राचीरों पर अब लहराए।

    दुग्ध-धार गाई कभी यों

    भूरी भैंस यों पनहाई

    अंजुलि भर-भर माखन निकले

    यों किसी ने दूध हिलाए।

    यों कभी भी गेहूँ-बालियाँ

    स्वर्ण-पायलों-जैसी छनकी

    तारों-जैसे सुंदर दाने

    यों किसी ने ढेर लगाए

    इसी धरती की गंध कोख से

    ऐसी कभी दुहिता जन्मी

    सिंहों से बढ़कर बलशाली

    किसने ऐसे सुत उपजाए?

    वृद्धावस्था में किसी ने

    श्रम औ' रति का यों फल पाया

    मधु-ऋतु सी पतझड़ यह कैसी

    जिसके घने सघन हैं साए

    अनुपम यह स्वप्नों का रोपन

    अनुपम यह स्वप्नों का संचय

    स्वप्नों की फसलों पर किसने

    गाहे धान्य तथा ओसाए?

    यह सपना है जीवन-जैसा

    जीवन ही के योग्य स्वप्न यह

    मेरी सबकी यही साध है

    सच बनकर यह सपना आए

    यों कोई मम आँगन आए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 483)
    • रचनाकार : हरनाम सिंह नाज़
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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