थोड़ा घर-परिवार के लिए
थोड़ा ऑफिस-सरकार के लिए
कैसे हम अपने को विभक्त कर रहे हैं
कैसे हम अपने को छिन्न-भिन्न कर रहे हैं
कहाँ है हमारी संपूर्णता?
कहाँ है हमारी स्वायत्तता?
कहाँ है अपनत्व?
कहाँ है हमारी स्वतंत्रता?
कैसे हम स्थिति के प्यादे हो रहे हैं
कैसे हम विकृति की चोटी हो रहे हैं
फिर भी हम गरजे हैं, चिल्लाए हैं
यह कि—
“हम आदमी हैं, हम आदमी हैं!!”
मुक्ति तो दूर की बात है—
क्या हमें कभी दासत्वबोध भी हुआ?
बहुत हुआ—हमारे अंदर का आदमी मर चुका है—
हम कैसे मरे हुए जानवर होकर चल रहे हैं?
यह झीने सपनों की बस्ती है
यह मरे हुए जानवरों की बस्ती है
आदमी की ही शक्ल-सूरत के, आदमी की ही नकल करने वाले
यह घृणास्पदों की बस्ती है
यह सीनों की बस्ती है
यह मात्र सीनों की बस्ती
भगटे के छिलकों की बस्ती
टूटे हुए मिट्टी के बर्तनों की बस्ती
रंग-रंग के नकाबों की बस्ती
यह सिर्फ़ मरे हुए जानवरों की बस्ती है।
सीनों की बस्ती : मरे हुए जानवरों की बस्ती
- पुस्तक : नेपाली कविताएँ (पृष्ठ 37)
- संपादक : सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
- रचनाकार : दमन ढुंगाना
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 1982
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