एक
प्रेम को लेकर इतनी सारी धारणाएँ चल पड़ी हैं
कि यह समझना मुश्किल हो गया है कि प्रेम क्या है।
एक धारणा कहती है, सबसे करो प्रेम
दूसरी धारणा बोलती है, बस किसी एक से करो प्रेम
तीसरी धारणा मानती है, प्रेम किया नहीं जाता हो जाता है
एक चौथी धारणा भी है, कि पहला प्रेम हमेशा बना रहता है
बशर्ते याद रह जाए कि कौन-सा पहला था या प्रेम था।
पाँचवीं धारणा है, प्रेम-व्रेम सब बकवास है, नज़रों का धोखा है।
अब वह शख़्स क्या करे जिसे इतनी सारी धारणाएँ मिल जाएँ
और प्रेम न मिले?
या मिले तो वह प्रेम को पहचान न पाए?
या जिसे प्रेम माने, वह प्रेम जैसा हो, लेकिन प्रेम न निकले?
क्या वाक़ई जो प्रेम करते हैं वे प्रेम कविताएँ पढ़ते हैं?
या सिर्फ़ प्रेम उनकी कल्पनाओं में होता है?
लेकिन कल्पनाओं में ही हो तो क्या बुरा है
आख़िर कल्पनाओं से भी तो बनती है ज़िंदगी
शायद ठोस कुछ कम होती हो, मगर सुंदर कुछ ज़्यादा होती है
और इसमें यह सुविधा होती है कि आप अपनी दुनिया को, अपने प्रेम को
मनचाहे ढंग से बार-बार रचें, सिरजें और नया कर दें
हममें से बहुत सारे लोग जीवन भर कल्पनाओं में ही प्रेम करते रहे
और शायद ख़ुश रहे
कि इस काल्पनिक प्रेम ने भी किया उनका जीवन समृद्ध।
दो
जो न ठीक से प्रेम कर पाए न क्रांति
वे प्रेम और क्रांति को एक तराजू पर तौलते रहे
बताते रहे कि प्रेम भी क्रांति है और क्रांति भी प्रेम है
कुछ तो यह भरमाते रहे कि क्रांति ही उनका पहला और अंतिम प्रेम है
कविता को अंतिम प्रेम बताने वाले भी दिखे।
प्रेम के नाम पर शख़्सियतें भी कई याद आती रहीं
मजनू जैसे दीवाने और लैला जैसी दुस्साहसी लड़कियाँ
और इन दोनों से बहुत दूर खड़ा, शायद बेख़बर भी,
अपना कबीर जो कभी राम के प्रेम में डूबा मिला
और कभी सिर काटकर प्रेम हासिल करने की तजवीज़ बताता रहा।
न जाने कितनी प्रेम कविताएँ लिखी गईं, न जाने कितने प्रेमी नायक खड़े हुए
न जाने फ़िल्मों में कितनी-कितनी बार, कितनी-कितनी तरह से, कल्पनाओं के सैकड़ों इंद्रधनुषी रंग
लेकर रचा जाता रहा प्रेम।
लेकिन जिन्होंने किया, उन्होंने भी पाया
प्रेम का इतना पसरा हुआ रायता किसी काम नहीं आया
जब हुआ, हर बार बिल्कुल नया-सा लगा
जिसकी कोई मिसाल कहीं हो ही नहीं सकती थी
जिसमें छुआ-अनछुआ
जो कुछ हुआ, पहली बार हुआ।
तीन
वे जो घरों को छोड़कर
दीवारों को फलाँग कर
जातियों और खाप को अँगूठा दिखाकर
एक दिन भाग खडे होते हैं
वे शायद अपने सबसे सुंदर और जोखिम भरे दिनों में
छुपते-छुपाते कर रहे होते हैं
अपनी ज़िंदगी का सबसे गहरा प्रेम।
वे बसों, ट्रेनों होटलों और शहरों को अदलते-बदलते
इस उम्मीद के भरोसे दौड़ते चले जाते हैं
कि एक दिन दुनिया उन्हें समझेगी, उनके प्रेम को स्वीकार कर लेगी।
ये हमारे लैला-मजनू, ये हमारे शीरीं-फ़रहाद, ये हमारे रोमियो-जूलियट
नहीं जानते कि वे सिर्फ़ प्रेम नहीं कर रहे
एक सहमी हुई दुनिया को उसकी दीवारों का खोखलापन भी दिखा रहे होते हैं
वे नहीं समझते कि उन दो लोगों का प्रेम
कैसे उस समाज के लिए ख़तरा है
जिसकी बुनियाद में प्रेम नहीं घृणा है, बराबरी नहीं दबदबा है,
साझा नहीं बँटवारा है।
वे तो बस कर रहे होते हें प्रेम
जिसे अपने ही सड़ाँध से बजबजाती और दरकती एक दुनिया डरी-डरी देखती है
और जल्द से जल्द इसे मिटा देना चाहती है।
- रचनाकार : प्रियदर्शन
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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