ये भी एक बात थी कि लोग तरसा किए
ye bhi ek baat thi ki log tarsa kiye
जैसा मनोज साधारण नाम था, वैसा उसका हुलिया
ज़ाहिर है वह मल्होत्रा हो नहीं सकता था, तो कुमार ही था लाचारी में
उसी लाचारी में सिली हुई शर्ट और प्लेट वाली पैंट पर था वह
जैसे ‘डिडंट’ और ‘कांट’ की जगह
‘डिड नॉट’ और ‘कैन नॉट’ पर था
कई साल ज़िंदगी के डिड नॉट और कैन नॉट तक आने में लग गए उसके
जब सब बंध गए कहीं न कहीं, तब जाकर क़तार के आख़िरी इंसान-सा काउंटर पर आया वह
सारी खिड़कियाँ बंद हो चुकी थीं, सारे दरवाज़े बंद
फिर भी उसने हिम्मत की
पहले प्रपोज़ल का पहला शॉक बड़ी दिलेरी से झेला उसने
सिर के बाल उड़ना कोई बीमारी नहीं थी, कोई अपंगता नहीं थी
पर थी वह कुछ तो
कितने शैंपू, कितने कंडीशनर, कितने तेल, कितने तरीक़े
कुछ बाक़ी नहीं बचा
सिवाए ठुकराए जाने के
उसने ख़ूब अच्छे कपड़े पहने
ख़ूब तैयार हुआ
ख़ूब मेहनत की
चुपचाप उसने प्यार किया
चुपचाप उदास हुआ
चुप ही रहा वह
अपनी हीनभावना में घुलता
गालियाँ देता
दुनिया में रंडियाँ थीं या हरामज़ादियाँ
उसकी भाषा में जो थीं सब चूतिया काटने वालीं
गालियाँ देने के वक़्त को क्रेडिट कार्ड से भगाया उसने
जिन्हें चुन सकता था
क्रेडिट कार्ड की बदौलत
सबको चुना
लेकिन जब-जब किसी के साथ सोया
रोया ही
चाहता था उसकी जगह उसका वॉलेट रख दिया जाए बिस्तर पर
वह मजबूरियाँ नहीं चाहता था
समझौते नहीं चाहता था
पर पास वही आते थे
जैसे उसकी पत्नी
जिसे सबसे अंतरंग समय में सबसे प्यार भरी बात यही लगती थी
कि बालों से क्या होता है, तुम बहुत अच्छे लगते हो
प्यार किए जाने के लिए कितना तरसा वह
जितना तरसा उतना भटका
कोई तो दीवाना हो जाए
किसी को तो वह पूरी तरह अच्छा लगे
ये कोई बात न थी
ऐसे सफल आदमी के लिए इस उम्र में जबकि सब उस जैसे ही थे
पर कैसी बात थी
जिसको जिया उसने
- रचनाकार : शुभम श्री
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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