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यात्रा

yatra

शरद बिलाैरे

और अधिकशरद बिलाैरे

     

    एक

    हम दूर देश की यात्रा पर निकलते हैं
    घूमने नहीं
    नौकरी करने।

    हम निकलते हैं
    अपने शहर से बाहर
    और
    किसी की पूरी ज़िंदगी से बाहर निकल जाते हैं,
    एकदम जीवित।

    रेल में बैठे हुए हम
    यात्रा से संबंधित चीज़ों को छोड़कर
    शेष सबके बारे में सोचते हैं।

    कल
    जब हमें अपने शहर में नौकरी मिल जाएगी
    हम लौटेंगे
    छुट्टियाँ बिताने नहीं,
    शहर में हमेशा-हमेशा को बस जाने के लिए।

    तब
    क्या हम उस संसार में
    उतने ही जीवित लौट पाएँगे
    जहाँ से एक दिन हम
    दूर देश की यात्रा पर निकले थे
    नौकरी करने के लिए भी
    और अपने शहर
    हमेशा-हमेशा को लौटने के लिए भी।

    दो

    मैं लिखूँगा एक दिन
    अपनी लंबी-लंबी यात्राओं के बारे में।
    दूर देशों के बारे में
    लिखूँगा ज़रूर
    ढेर की ढेर कविताएँ।
    मैं लिखूँगा तब
    जब अपने शहर और नौकरी के बारे में
    कुछ नहीं सोचकर
    यात्रा करता हुआ
    मैं सिर्फ़
    यात्रा के बारे में ही सोचूँगा।

    तीन

    विदा के समय
    सब आए छोड़ने
    दरवाज़े तक माँ
    मोटर तक भाई
    जंक्शन पर बड़ी गाड़ी पकड़ने तक
    दोस्त।
    शहर आया अंत तक साथ
    और लौटा नहीं।

    चार

    एक नदी
    दो नदी
    दस नदी
    यात्रा एक
    और पार करनी पड़ी अनगिनत नदियाँ।
    पहाड़ों और मैदानों की गिनती अलग
    ख़र्च के मद में कुल जमा पाँच दिन।
    एक अच्छी नौकरी के लिए
    इतना सब बहुत बड़ा
    बहुत छोटी योग्यता
    और समझदारी की उम्र।

    पाँच

    अतुल कहो तो अतुल
    रेखा कहो तो रेखा
    मनु कहो तो मनु
    रेल के जादुई संगीत में
    लगातार बजते हैं सोचे हुए नाम।
    और आँख बंद करते ही रेल
    विपरीत दिशा में
    घर की तरफ़ दौड़ने लगती है।
    कितना साफ़ दिखता है
    रेल में बैठे-बैठे
    हज़ारों मील दूर का घर।

    छह

    रेल में चढ़ते हुए
    अपने सामान के बारे में हम
    उतने ही सतर्क होते हैं
    जितने कि
    बस में चढ़ते हुए
    खिड़की के पास वाली सीट के बारे में।
    जितने कि
    विदा के समय
    हाथ हिलाने के बारे में।
    जितने कि हम
    यात्रा समाप्त करने पर
    सतर्क होते हैं।
    सपनों के उस संसार के बारे में
    हम कभी सतर्क नहीं होते
    जहाँ हमें
    भावी डर के बारे में सतर्क करते हुए
    ले जाती हैं
    रेलें
    बसें
    और मित्रताएँ।

    सात

    बचपन की छुक-छुक गाड़ी
    देखते-देखते हो गई
    दैत्याकार और दहाड़ती रेल।
    वहाँ मैं
    कभी गार्ड का डिब्बा होता था
    कभी इंजन
    कभी कंडक्टर
    यात्री कभी नहीं था।

     

    मैं
    गुड्डे-गुड़ियाँ फेंक कर
    बचपन से बाहर निकला था
    छुक-छुक गाड़ी में शामिल होने
    और उसमें बैठा-बैठा ही
    बड़ा हो गया।

    आठ

    जब हम टी.टी. को लापरवाही से
    टिकटें पकड़ाकर
    प्लेटफ़ॉर्म से बाहर निकलते हैं
    तब चारों ओर
    गर्दन घुमाकर देखते हुए
    सोचते ज़रूर हैं
    कि हमारा सहयात्री
    अब तक
    प्लेटफ़ॉर्म पार कर गया होगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : तय तो यही हुआ था (पृष्ठ 28)
    • रचनाकार : शरद बिलौरे
    • प्रकाशन : परिमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1982

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