सन्मित्र कपिलदेव की याद के साथ
अलग-अलग जातियों के
अलग-अलग अंतर्मन वाले
अलग-अलग अर्थार्थी
शब्दों का युग्म
मिलकर बनाता था यमक अलंकार
ऐसा आभास होता
कि एक ही घड़ी में एक ही कोख से जन्मे होंगे दोनों
वही सर्दी, वही गर्मी, वही तुषारापात झेले होंगे
होंगे एक ही वज़न के
एक ही साबुन से नहाए होंगे
लगता था कि
यदि अकेले एक शब्द को न्यौता गया
तो मुँह फुला लेगा दूसरा
या दूसरे की अवहेलना की गई
तो पहला कर देगा
सारी काव्य-योजना का बहिष्कार
न कोई लिंग भेद दिखाई देता
दोनों में
न वचन भेद
यहाँ तक कि
एक ही धातु और प्रत्यय से
बने लगते दोनों
या एक ही नाटक में दो सूत्रधार
लेकिन अभिनय में
एक नायक निकलता तो दूसरा प्रतिनायक हो सकता था
या एक के सेवन से
आदमी में आ जाती थी मादकता
तो दूसरे के संग्रह से
जैसे कि कनक-कनक में ही था
एक जैसे रूप या चेहरे या प्रकार के
अगल-बग़ल बैठते थे कैसे दो शब्द
कि आपस में
एक का कान होता तो दूसरे का मुँह
एक के पैर के बायाँ अँगूठा छू जाता
दूसरे के दाएँ अँगूठे से
या एक ही गिलास में
दोनों ही पी लेते एक एक घूँट पानी
या मुँह पोंछ लेते एक दूसरे की रूमाल खींचकर
ऐसे यमक में
दूसरे कनक में
भला कहीं होती है वस्तुगत मादकता?
यदि पहले कनक में
न होती कोई मादकता
तो दूसरा कनक भी
क्या हो सकता था मादक
किसी भी न्याय से?
क्या एक ही पाठ के
नहीं होते थे कई-कई पाठ
क्या अर्थ के संपर्क से
अर्थवान नहीं होते
दूसरे भी अर्थ
क्या अभिनय को
अभिनय ही नहीं बनाता गतिशील?
वही स्वर, वही व्यंजन, वही साक्षरता
ऐसी गणमैत्री कि रेफ भर अंतर नहीं
कविता का अलंकार बन जाने के लिए
कैसे इकट्ठे हो जाते थे ऐसे वर्ण स्तवक
कि दाँतों तले अँगुली दबा लेते थे काव्य-रसिक
या मुँह पीछे करके पोंछ लेते आँख
या बढ़ा देते थे हाथ
जिसमें न पहले कनक का नशा होता
न दूसरे कनक की पण्यमूलक चमक
बल्कि यह देखकर
कि कैसे दो देश के
दीगर परिवेश के
दो खान-पान के, दो साँझ-बिहान के
दो-दो उनवान, दो जीवन निकाय के
दो अर्थच्छवि, दो भाषा समुदाय के
मान, अपमान, अभिमान तक विहाय के
दो अवर्ण लोक के शब्द-युगल
आकर बैठ जाते थे अगल-बग़ल
संग-संग उड़कर या पैदल
कविता के आवाहन पर
राजा का राज गया, पाट गया राजा का
कविता से व्याकरण के चले गए दिन
कई सौ सालों का राज रसराज का
उसके ही साथ गया राज पंडितराज का
आत्मनिवेदन का बाप भक्तिकाल गया
असली और नक़ली शृंगार का दलाल गया
कविता पर कविता का खड़ा रीतिकाल गया
कई-कई वाद गए
आकर विवाद गए
गए जिन्हें जाना था
आए जिन्हें आना था
जाने का दुख भी हुआ
आने का सुख भी
जितना कि होना था
पाँच सौ विलाप रहा
पाँच ग्राम रोना था
लेकिन मैं लेकिन यह
स्वयं यमक रहा कह
कि कविता का
केवल बेल बूटा भर नहीं था वह
लक्षण भर नहीं था, न ही परमादेश
कविता की कोई फ़ितरत भी नहीं था
कवि की दिमाग़ी कसरत भर नहीं था
यमक एक हसरत था
कि एक धातु एक रूप एक स्वर व्यंजन से
बिंब-प्रतिबिंब जैसा शब्द युगल
कैसे बैठ जाता था अगल-बग़ल
दोनों के कक्कन
छूटे किस रेले में
खोया किस मेले में
वह वर्णसाम्य ध्वज
या झंडों ने बाँट लिए
आधे-आधे दो भाई
ज़ाहिर है
कि पहले का यमक
हमारे समय का यमक नहीं हो सकता
काश! इसे मैं किसी और भाषा में कह सकता
लेकिन तैर रही है ऊपर-ऊपर
मूज के भूए की तरह
यमक की आत्मा
डर रही हो जैसे
कि उतरने से
पानी में पड़ जाएगी
या किसी अंगारे पर
अब हर शब्द
दूसरे जैसा
दिखने से कतराता है
संकटों में
सबसे बड़ा हो गया है
पहचान का संकट
और इस संकट से उबरने के लिए
कोई चला आ रहा है
विदर्भ की राह पकड़े
कोई पांचाल पथ से
तो कोई गौड़देशीय होने की अकड़ लिए हुए
कोई हद से
तो कोई बेहद से
कोई गुणीभूत है
कोई अर्थांतर संक्रमित
तो कोई...
कहने वाले कहते हैं
कि कोई सरोवर से उपजा है
तो कोई पंक से,
कोई अंबु से तो कोई पय से
बहुत फ़र्क़ नहीं रहा अर्थ में
सबके सब लगभग पर्याय
है कोई नया संप्रदाय
खेद यमक खेद
हाय यमक हाय!
- रचनाकार : अष्टभुजा शुक्ल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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