अँधेरा जब अँधेरे में ही लिपटा हो
और हमें सूर्य की कल्पना से भी
महरूम कर दिया जाए
तब पृथ्वी के कौने से हिस्से पर
हम अपना पाँव टिका सकते हैं!
जब जल को वाष्प में बदलकर
फैला दिया जाए
पूरे माहौल में
कोहरे की तरह
और नदी को पृथ्वी के नक़्शे से ही
मिटा दिया जाए
तो हलक़ में फँसे शब्दों को
माहौल में पटकने के लिए
जल कहाँ से जुटा सकते हैं?
जब हवाओं को स्थिर करके
कुछ चट्टानों की तरह
डाल दिया गया हो बंदी-गृहों में
तब गति की तलाश में
भटकती चेतना के वारिस
तरलता कहाँ से पा सकते हैं?
कल्पना कुंद
माहौल में कोहरा
जल और गति-हीन जीवन चक्र की
धुरी का
आज हम क्या अर्थ लगा सकते हैं?
- पुस्तक : मुक्ति-द्वार के सामने (पृष्ठ 55)
- रचनाकार : प्रताप सहगल
- प्रकाशन : अमरसत्य प्रकाशन
- संस्करण : 2012
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