पाँच स्त्रियाँ दुनियाँ की असंख्य स्त्रियाँ हैं
खेतों में उग रही है कपास
प्रजननरत हैं रेशम के कीड़े
भेड़
नाई के यहाँ जा रही हैं
घूम रहा है चरख़ा
चल रहा है करघा
ख़ूब काते जा रहे हैं सूत
ख़ूब बुने जा रहे हैं कपड़े
ऐन इसी समय
पाँच स्त्रियों को नंगा किया जा रहा है
गाँव के बीचों-बीच
भरी भीड़ में
एक-एक कर नोचे जा रहे हैं सारे कपड़े
देह से अंतिम कपड़ों के नुचते ही
उनकी बाँहें और टाँगें
अपस में सूत की तरह गुँथकर बन जाना चाहती हैं
ख़ूब गझिन कपड़े का कोई टुकड़ा
गालियाँ बकती हुई बंद करती हैं वे अपनी आँखें
तो पलकें चाहती हैं मूँद लेना पूरा शरीर
आत्मा चाहती है बन जाना देह की चदरिया
पाँच स्त्रियों को बहुत चुभता है
दिन का अश्लील प्रकाश
भीड़ में कोई नहीं सोचता कि अब
फूँककर बुझा देना चाहिए सूर्य!
पाँच स्त्रियों को चलाया जाता है
यहाँ से वहाँ तक
वहाँ से वापिस नहीं लौटना चाहती हैं वे
मुड़ जाना
किसी पथरीले और जंगली समय की ओर
जब तन ढँकने का रिवाज नहीं था
अधिक से अधिक
देह की चमड़ी भर उतारी जा सकती थी
शर्म से लहूलुहान पाँच स्त्रियाँ
देह पर लाज भर लत्ता नहीं
धीरे-धीरे सारी लाज
सहमी हुई जा दुबकती है नाख़ूनों की ओट में
बची हुई मैल के बीच
जब पहली बार पृथ्वी पर
कपास को दूह कर काता गया होगा
पहला-पहला सूत
उसी समय पहले सूत से ही बुन दी गई होगी
पाँच स्त्रियों की नग्नता
पाँच स्त्रियाँ दुनियाँ की असंख्य स्त्रियाँ हैं
कभी विज्ञापनों में
कभी माँ के गर्भ में ही
कभी पीट-पीटकर जबरन
नंगी की जाती हुई
और कभी-कभी तो कोई कुछ करता भी नहीं
अपने ही हाथों उतारने लगती हैं वे अपने कपड़े चुपचाप
अब क्या करना होगा इन्हें फिर से ढँकने के लिए?
अख़बार में छपी है ख़बर
पर कहता है दर्ज़ी कि नाप से कम है ख़बर
सदन में जो बहस हुई
नाप से कम है
कम है नाप से कविता
श्रीकृष्ण वस्त्रालय पर लगा हुआ है ताला
और वह रास्ता
जो जाता है यहाँ से गांधीनगर की ओर
जहाँ एशिया का सबसे बड़ा कपड़ा बाज़ार है
कहीं बीच में ही खो गया है
तो क्या
अब हमारी इस पृथ्वी को अपनी धुरी पर
किसी लट्टू की तरह नहीं
बल्कि एक तकली की तरह घूमना होगा?
- रचनाकार : चंदन सिंह
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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