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यह रस नहीं, ज़हर है

ye ras nahin, zahr hai

दूधनाथ सिंह

दूधनाथ सिंह

यह रस नहीं, ज़हर है

दूधनाथ सिंह

और अधिकदूधनाथ सिंह

     

    एक 

    यह सब-कुछ
    कितना अनहोना है!
    कितना अविश्वसनीय और कितना अदृष्ट!
    यह सब सोचना, यह सब देखना और सब का सब सहना
    कितना अनहोना है!

    कोई समझेगा? क्या कोई समझेगा?
    क्या कोई सच में विश्वास कभी करेगा?
    वह पीढ़ी कहाँ है
    वे लोग कहाँ हैं
    वो दुनिया कहाँ है?

    वे पहले हमारी छातियाँ पोली कर देते हैं फिर इन्जेक्ट करते हैं
    वे हमारी हड्डियों में छेद कर देते हैं,
    फिर उस पर प्लास्टर बाँधते हैं,
    वे अकेले कमरों में बिजली के कोड़े सटकारते हैं,
    बाहर गले मिल लेते हैं
    वे हमारे सिर पर निहाई पर छुपे हथियार पीटकर पिजाते हैं।
    रेशमी लिबासों में ख़ूँख़्वार दिल
    और ख़ौफ़नाक अफ़साने छुपाए वे
    सभ्यता का सुंदर इतिहास लिख रहे हैं—वे क्रूर... वे आदिम...
    वे अत्याचारी... नक़ाबपोश... आह क्या कोई समझेगा?
    यह ‘सच’ सचमुच
    कितना अनहोना है!

    दो

    किस तरह आग की एक-एक लपट
    हवा में घुल-सी जाती है।
    किस तरह झुलसे जाते लोग 
    और पृथ्वी अँधेरे की प्रतीक्षा में
    आँखें फैलाए है।

    किस तरह लहू की एक-एक बूँद
    मुफ़्त में तुल-सी जाती है
    किस तरह सूखे काठ के मानिंद
    सारी की सारी जनता—खड़ी 
    मुँह बाए हैं।

    कौन यह भविष्यत् के मुँह में आग धधकाता है!
    कैसे यह रूह में सूराख़ हो गई है
    बहे चले जाते हैं रौशनी के काँपते शिकारे
    (झिलमिल-सा बैठा तो रहता है यह कवि
    डूबकर पुकारे तो किसको पुकारे?)

    अभी भी अँधेरे पर किस तरह सान दिया जाता है
    एक ही तड़प-भरे मौसम को कितना तान दिया जाता है
    किस तरह पानी में तह किया रखा है मेरा संगीत
    किस तरह सन्नाटे की एक-एक आँख
    चारों ओर, निपट खुल-सी जाती है

    इसी सन्नाटे में कैंसर, मेनज़ाइटिस दल बाँधे खड़े हैं
    सड़कों पर ख़ंजर छुपाए भेड़िए टहल रहे हैं
    ऊँचे मकानों पर उल्लुओं के दल पहरा दे रहे हैं।
    इसी सन्नाटे में कवियों और
    कलाकारों के लिए सेनेटोरियम खुल रहे हैं
    संतों और महात्माओं के लिए पागलख़ाने
    और अर्द्ध-विक्षिप्तों के लिए राजगद्दियाँ...
    हाय रे अभूतपूर्व कविता!
    तुझ पर विश्वास 
    भला कौन करेगा?

    तीन

    फिर मैं क्या लिखूँ? आह मेरी भाषा!
    मैं तेरा सुंदर उपयोग किस तरह करूँ
    वह फूलों की सेज और शाकाहारी देवता
    कहाँ से लाऊँ?

    आह मेरी पत्नी! मैं तेरे गर्भ में भविष्य का
    निरपराध आत्मघाती कैसे रख दूँ?
    आह! मेरे छोटे भाई! मैं तुझे रेशमी क़मीज़
    कैसे सिलवा दूँ!

    आह मेरी कविता! मैं तुझे पाठक
    या श्रोता कहाँ से ला दूँ!
    यह वो कविता नहीं है
    यह केवल ख़ून-सनी चमड़ी उतार लेने
    की तरह है।
    यह कोई रस नहीं,
    ज़हर है... ज़हर।
    (आह मेरे लोगों! मैं तुम्हें
    अमृत के घूँट कहाँ से पिला दूँ।)

    चार

    ये आँखें तो कथा-पारंगत हैं
    पर इनमें झाँकेगा कौन?
    वह पीढ़ी कहाँ है
    वे लोग कहाँ है
    वो दुनिया कहाँ है!

    स्रोत :
    • पुस्तक : अपनी सदी के नाम (पृष्ठ 85)
    • रचनाकार : दूधनाथ सिंह
    • प्रकाशन : साहित्य भंडार
    • संस्करण : 2014

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