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शब्दों के चिथड़े

shabdon ke chithDe

कृष्ण कल्पित

कृष्ण कल्पित

शब्दों के चिथड़े

कृष्ण कल्पित

और अधिककृष्ण कल्पित

    अनुभव की आँच

    भाषा की अकुलाहट

    सबदों का साँच

    फिर भी

    कवित्त पर कवित्त

    कहे जा रहा था

    वह चारण कवि।

    केसर कस्तूरी के कीचड़ में धँसी

    ठंड में ठिठकी खड़ी रात देखती रही

    भिखारी भाषा का फूहड़ नाच।

    गोखे पर ऊभी मुझमें

    उस पल ही तो घुमड़ी थी

    नदी की पागल देह।

    उस पल ही उमड़ा था मुझमें

    पाखियों का उन्मुक्त कलरव।

    उस पल ही जागा था मुझमें

    सोया पड़ा बावला दु:ख।

    उस पल ही तो निसरा था

    मेरे अधरों से

    कोई अछूता सबद।

    उस पल ही तो फैला था मुझमें

    आवारा गीतों का

    गरमास।

    हाँ उस पल ही तो पहचानी थी मैंने

    अपने अनुभव की आभा

    औचक ही

    घेर लिया जिसने।

    बहुत धीमे-धीमे—पग धरती

    डरती-डरती

    मैं निकल आई

    दी हुई भाषा के अँधेरे से

    अपने सबदों के उजास में।

    पहली बार देखा मैंने

    अपने इतने पास

    धूप को।

    पहली बार ही तो देखा मुझे

    उतरती भोर में

    सुनसान पड़ा पंडाल

    उजड़ी हुई महफ़िल

    कुचले हुए फूल

    काँपते हुए पत्ते

    झड़ता हुआ अवसाद

    हाँफता हुआ यशोगान

    मरे हुए छंदों की कटी हुई पाँखें

    उतरते नशे की थकी-थकी आँखें।

    इस ज़रीगोटेदार भाषा के

    बाँदी समय में

    कौन समझेगा

    कि मुझ पगलेट को तो

    अपने ही खोजे शब्दों के

    बदरंग चिथड़े प्यारे हैं।

    जो लड़े हैं, थके हैं, हारे हैं

    उनके ये ही तो सहारे हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कोई अछूता सबद (पृष्ठ 11)
    • रचनाकार : कृष्ण कल्पित
    • प्रकाशन : क़लमकार प्रकाशन
    • संस्करण : 2003

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