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विश्वास

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा

विश्वास

मनोज शर्मा

और अधिकमनोज शर्मा

    विश्वास

    एक महानता रचता है

    विश्वास हर बार

    चुप्पी संग आता है

    और अपने में ही छिपाए रखता है अपनी विराटता

    ममत्व की आदि गंध में रचा-बसा होता है

    प्रत्येक विश्वास

    वह फिसलता नहीं है

    हालाँकि, डूब जाने जैसा कुछ-कुछ ज़रूर होता है उसमें

    इसे ललक कहें या बेचैनी

    आता है जब वह

    तंग से तंग पड़ी जगह में भी

    पैठ बना जाता है

    मैंने

    अपना पहला विश्वास हवा पर किया

    दरख़्तों के पत्ते, जब भी बजबजाते

    दौड़ता-गता मैं छत्त पर जाता

    रंग-बिरंगी पतंगें पड़ाता

    उन दिनों

    विश्वास की तितलियाँ

    हर दिशा में मंडराती रहतीं

    विश्वास

    प्रत्येक बार नया संसार बसाता है

    जहाँ शोर की नहीं होती कोई जगह

    ख़ामोशी की एक पाठशाला होती है

    और आदमी

    पोर-पोर पाठ दोहराता जाता है

    जहाँ विश्वास है

    डर की गुंजाइश नहीं वहाँ

    इसका जब पता चला

    उस समय

    एक माँ

    अपने नवजात को दूध पिला रही थी

    ये आज़ादी मिलने के ठीक बाद के दिन थे

    अब तारीख़ों तो सही-सही याद नहीं

    लेकिन समय निरंतर कतने लगा था

    रूई की पोनी-सा

    तथा अचानक बदलने लगे थे आकार

    तथा देखते-देखते विश्वास, अपनी तासीर छोड़

    कई सारे जुमलों में ढलने लगा था

    बहुत सारे जुमलों में ढलने लगा था

    बहुत सारे शब्द हैं हवा में फैले हुए

    भ्रम हों जैसे मनकों में पिरोए गए

    कोई अध्यापक या डॉक्टर या वकील या कोई खिलाड़ी

    या फिर कोई संतरी-मंत्री, यहाँ तक कि संसद तक

    इन्हीं शब्दों को लपक-लपक उठते-लहराते जा रहे हैं

    और उधड़ता चला गया है महानता का विराट

    कि जैसे उधड़ती चली गई हों सहलाती हुई बातें

    पर साथी!

    क्या करूँ मैं इसका

    लोगों में मेरी दिलचस्पी

    बंद नहीं हुई अभी भी

    अभी भी मुझे भोर के सपनों में दीखते हैं मोर

    तितलियाँ मंडराती हैं चहूँ ओर

    अभी भी

    कई जोड़ी बूढ़ी आँखें

    झाँकती हैं आँखों में पुतलियाँ नचातीं

    और विश्वास भरा चंदा

    उतरता है आँगन में बेख़ौफ़

    अभी भी।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मनोज शर्मा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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