मैं अंकुरित हो रहा हूँ
मैं अभी खेत जोतकर
धीरे-धीरे अंकुरित हो रहा हूँ
कुहासे से भरी रात के बीच
और तुम सड़क के उस तरफ़ लहराती हुई
नदी की तरह बहकर दूर निकल गईं
आसमान की तरह साफ़ होगी तुम्हारी देह
जो अब भी झलकती है तुम्हारे अंदर—
नदी में टिम-टिम करती हुई!
उसे छूने के लिए मैं बहना नहीं चाहता
क्योंकि छूट गए पीछे—अनगिनत लोग।
मैं खेत में अंकुरित हो रहा हूँ
और मेरे ऊपर औंधे लेटी हुई तुम!
सहलाता है मेरे प्यार को एक किसान
लबालब भरी हुई क्यारियों की तरह
जिसमें टिमटिमाती है तुम्हारी देह
फिर धरती सोख लेती है उसे
लेकिन मैं बेचैन हो जाता हूँ
कहीं धरती की सतह पर छूट तो नहीं गई—
तुम्हारी देह, तुम्हारी आँख
क्योंकि मैं अंकुरित हो रहा हूँ
मेरे भीतर से फूटेगा कौन
मेरे भीतर ख़ाली है आत्मा
एक पहाड़ की तरह
जहाँ से हवा गुज़रती
मैं ख़ुद को तराशता
लेकिन सीने पर पाल नहीं बाँधी
जिसे तुम सहारा देतीं—
एक नाविक की तरह
आसमान के दूसरे छोर पर बैठी तुम!
या कि जिसके सहारे ख़ुद ही उतर पाऊँ
तुम्हारे भीतर इस नदी में
तैरूँ उस तरफ़
जहाँ गायें चरती हैं
जहाँ मोर नाचते हैं
जहाँ पत्तलों के भूए तपती रेत पर बिछे,
ऊपर तुम्हारी देह देख रहे हैं
और पहाड़ तुम्हें प्रेम करना चाह रहे हैं
बस उसी तरफ़ मैं अंकुरित हो रहा हूँ
एक किसान के सहारे,
एक नाविक के सहारे,
एक पहाड़ तराशती हवा के सहारे!
- रचनाकार : रवि प्रकाश
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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