विमर्श और यथार्थ में स्त्री
wimarsh aur yatharth mein istri
कभी-कभी मैं सोचती हूँ
बाहर निकलें औरतें
कथित स्त्री-विमर्श से
संभ्रांत दयालु लोग
ऊबे हुए दानिशमंदों की दिमाग़ी कसरत से निकला हुआ स्त्री-विमर्श
नहीं है किसी काम का—
बच्चे सम्हालती, भेड़ चराती औरतों के
किताबों-पोथियों में सहेजे विमर्श की चिंताएँ
और चिंतन नहीं पहुँच पा रहे
मछली पकड़ने वाली औरतों तक
विकास का पैमाना और आँकड़े मिथ्या हैं—
भूख से मरने वाली औरतों के लिए
मज़दूरों में मज़दूर औरतें
किसान औरतें जो किसान नहीं मानी गईं
स्थापित और सशक्त औरतें
सभी एक दल की तरह आएँ
और झटके से तोड़ें विमर्श के मकड़जाल को
अपनी आपबीती कहें—सच-सच
विमर्श में दिए गए उदाहरणों के अलावा
एक क़बीले की तरह निकलें औरतें
अपने दल को नेतृत्व देती हुईं
उसी तरह खोजें मिलकर
अपनी भाषा, अपने जीवन-कौशल,
हथियार, औज़ार, आग, पानी, धूप
ठीक उसी तरह जैसे खोजे गए थे
संसार के शुरू में—
लैंगिक पूर्वाग्रहों के बिना
उसी आधार में जाकर
सभ्यताओं के शिल्प को ठीक करें
अपने रचनाशील हाथों से
सत्ता की बेईमानियों को उधेड़ दें
और अपनी भाषा रचें
जो सिर्फ़ प्रेम और त्याग से न लीपी गई हो
ग़ुस्से और विरोध के स्वर में बोल सकें
भाषा जिसमें दुःख, दुःख की तरह आए
ख़ुशी, ख़ुशी की तरह,
और रंग बचे रहें बनावट से…
- रचनाकार : अनुराधा अनन्या
- प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका
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