मुझे लगता है।

mujhe lagta hai

जयंत पाठक

जयंत पाठक

मुझे लगता है।

जयंत पाठक

और अधिकजयंत पाठक

    रूप है, रंग, और ढंग भी कैसा अनाकर्षक है,

    नयनों में बिजली की चमक नहीं, चाल में छटा नहीं,

    गाल में गुलाब नहीं, रोज़-रोज़ देखकर ऐसा लगता है

    विरूप के सर्जन में विधाता अपनी कला क्यों व्यर्थ ख़र्च करता

    रोज़ वैसी सुरेख और मोहक नारी-आकृतियाँ देखता हूँ

    जिनके नयनों की बिजली का आघात से उर-अद्रि चूर-चूर हो जाता है

    और एक मैं हूँ इस रूप-हीन जड़ नारी का पति

    अतुष्ट, भाग्य-बल को दोष देता हुआ जीवन की धुरा ढो रहा हूँ।

    इसी तरह बहुत दिन बीते और वह एक शिशु की जननी बनी।

    प्राण के इस लघु पिंड को बड़ी उमंग से उसने पाला-पोसा

    और वह लघु पिंड, जीवन से छलकता हुआ वह शिशु, घुटनों के

    बल चलने लगा।

    आकर माँ की छाती में छिप जाता है और हँसता है माँ की

    आँखों में देखकर स्नेह की छलक!

    मुझे लगता है:

    यदि तुझे चाहने के लिए मैं बन सकूँ बालक!

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 227)
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक रंधीर उपाध्याय, आनंदीलाल तिवारी, सुन्दरम्
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1956

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