विदा के क्षणों में
wida ke kshnon mein
प्रथम क्षणों का चित्र : शांत ताल-जल में
फेंकी गई कंकरी से बूँदों का उछलना
लहरों पर लहरों का वृत्ताकार फैलना
रह-रह कर वेला से टकराना, टूटना...
और इन अंतिम क्षणों का यह सहज वृत्त :
तन का यों बढ़ी हुई बाँहों में सिमटना
जैसे स्वयं मेरी ही ममतालु बालिका हो
मेरी कामना की सुता, मुझ पर समर्पिता
सुख तो अनेक दिए पर्वत-पगडंडी ने :
प्रसन्न फूल, झरने, अरण्य, घन, घाटियाँ,
प्रफुल्ल खग, अभिनव अरुणोदय, अनुरंजित नभ
दुःख भी अनेक : पथरीला पथ, चढ़ाइयाँ,
थकान, हिम-पात, शीत, आँधियाँ, अकेलापन...
परंतु मन विराट् जिस सुख का अन्वेषी था
(विराट् दुःख जिसका सखा है, नित्य सहचर है)
तुम्हीं ने दिया सह कर इस निपट प्रवासी को
तुम्ही ने संचरित किया क्लांत, रिक्त धमनी में
अजस्र, नव, उष्ण रक्त
रूप, रस, गंध, स्पर्श-प्यासे अभ्यंतर को
तुम्हीं ने अनायास दी अटूट वह आत्म-तृप्ति
खोल दिए जिसने सब वातायन मन के
कपाट सभी अवरुद्ध वासना की कारा के
विमुक्त किया अंधतम—सन्निविष्ट यायावर आत्मा को
विदा के निमिषों की मूक, निर्निमेष चितवन से
तुम्हीं ने दी शिखवती अग्रगामी, स्पष्ट दृष्टि...
जाता हूँ
अदम्य हिम-खंडों के रहस्य-पट खोलने को
अदम्य पथ-चारी इन चरणों को तोलने को
आगे अब—
जाता हूँ।
- पुस्तक : तीसरा सप्तक (पृष्ठ 32)
- संपादक : अज्ञेय
- रचनाकार : प्रयागनारायण त्रिपाठी
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
- संस्करण : 2013
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