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वे बोलते नहीं थे

we bolte nahin the

रमणिका गुप्त

रमणिका गुप्त

वे बोलते नहीं थे

रमणिका गुप्त

 

वे बोलते नहीं थे
बिन बोले खाते 
बिन बोले पीते 
हँसते, गाते, रोते
पर वे बोलते नहीं थे

लकड़ियाँ काटते 
हल नाधते 
रोपनी-निकोनी करते 
कटनी के ‘झूम’ सजाते 
महुआ चुनते 
सखुए के बीज बटोरते 
कुसम-फूल बीनते
सिझाते 
बाँसों का जंगल का जंगल 
सूपों और टोकरियों में 
बिन डालते 
पर वे बोलते नहीं थे

भूख को भूख
प्यास को प्यास कहना 
आता नहीं था उन्हें
मार को मार 
अन्याय को अन्याय 
ज़ुल्म को ज़ुल्म कहना 
नहीं था उनकी सोच के दायरे में 
इसलिए बिना कहे, 
बिना बताए, 
बिना जताए
मर जाते थे वे लोग 
या जंगल छोड़ भाग जाते 
या 
भगा दिए जाते—
जड़ों से काटकर
ट्रकों में लाद 
रेल में साज कर 
कर्नाटक, असम, पंजाब 
भेज दिए जाते 
ज़रूरी सामान की तरह 
पर वे बोलते नहीं थे 

वे पूछते नहीं थे सवाल 
चूँकि वे सवाल करना जानते नहीं थे 
इसलिए उन्हें छोड़ दिया जाता 
उनके गाँवों में उग आए 
शहरों के जंगल में 
जहाँ उनका पूरा का पूरा पहाड़ 
पूरी की पूरी नदी 
और उसके बालू 
कंक्रीट के घरों में समा गई थी 
जहाँ उनकी नदी 
पिघलती लुक्क1तारकोल। की काली परत-सी 
सख़्त हो सड़क बन गई 
जहाँ उनकी ज़मीन पर 
मेड़ नहीं 
दीवार खड़ी हो गई 
भट्ठे की चिमनी ने लील ली थी फ़सल
विस्फोटों ने बदल दिए जल-स्रोत
बिरवे सूखे 
धरती ऊसर 
चूँकि वे बोलते नहीं थे 
सोचने की बात तो दूर 

पर अब वे बोलने लगे हैं 
भूख को भोजन 
प्यास को पानी 
मार को लाठी कहना सीख गए हैं 

अब वे सुनने लगे हैं 
सड़क के नीचे बहती अपनी नदी की 
कल-कल, छल-छल 
अब वे सोचने लगे हैं 
इसलिए 
जड़ों की तलाश में 
लौटने लगे हैं 
वे शहर में 
लुक्क की नदी पर 
रिक्शा चलाते-चलाते
अपने फेफड़ों में हुए सुराख़ का राज
जान गए हैं 
इसलिए माँग रहे हैं हिसाब 
लौटाने की ज़िद कर रहे हैं 
अपने फेफड़ों की वह हवा 
जो धौंकनी-सी चलती उनकी साँसों में 
शहर को रिक्शा में ढोते-ढोते 
छोड़ी थी 
लुक्क की काली परतों से सख़्त 
होकर बहती 
सड़क की नदी पर 
वे अब बोलने लगे हैं 
भूख को भोजन 
प्यास को पानी 
मार को लाठी कहने लगे हैं 
वे अब बोलने लगे हैं!

स्रोत :
  • पुस्तक : आदिवासी कविताएँ (पृष्ठ 9)
  • रचनाकार : रमणिका गुप्त
  • प्रकाशन : बोधि प्रकाशन
  • संस्करण : 2016

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