एक
वासना की खाज
किसने कब लगा दी मेरी त्वचा पर
कितनी दवाएँ कीं मैंने
फिर भी नहीं जाती हमेशा के लिए यह।
दो
अनुनय करती है यह
पहले तो पास आने का
फिर क़ब्ज़ा कर लेती है सभी इंद्रियों पर
और अंततः कर डालती है हताश मुझे
यह दुष्ट दाद।
तीन
शीत से सिकुड़ी हुई कोई नागिन
फैलाती है जैसे क्षण में गर्मी पाकर अपने फन
वैसे यह दुर्दांत दाद शांत थोड़ी देर रहकर
चढ़ बैठती है फिर सारे बदन पर।
चार
शरीर के ऊपरी हिस्से को अगर इसने मुहलत दे दी तो
शरीर के निचले हिस्से पर ज़रूर आक्रमण कर देती है
दिन में अगर इसने राहत की साँस ली
तो रात में ज़रूर धावा बोल देती है।
पाँच
जड़ है इस विष-वल्लरी की पाताल में
और फल है इसका आकाश में
मर्म तक समाए हुए हैं डंक इस दाद के
है नहीं विस्तार केवल चर्म ही तक।
छह
स्थूल शरीर को कर आक्रांत यह
सूक्ष्मता के कारण सूक्ष्म शरीर को भी पार कर चुकी है
पार पाना है कठिन इससे बहुत
हो चुकी है अंकित मानो यह हमारी आत्मा पर।
सात
सहन करता हूँ इसे मैं
सहलाता हूँ, धोता हूँ, झाड़ता हूँ, पोंछता हूँ
नहीं चाहता हूँ इसे
कष्ट पाता हूँ इससे
पर यह किसी भी तरह से जाती ही नहीं।
आठ
इस रोग का निदान क्या है
शायद माधव को समझ में आ सके
या फिर
इसका इलाज
वैद्यराज चक्रपाणि के हाथ ही कर पाएँ।
- रचनाकार : बलराम शुक्ल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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