जो वसंत तुम आय गए हो कछुयक करो निवास।
देखत बदन प्रसन्न तिहारो हिय को बढ़त हुलास।
तव प्रसन्न मुख देखन कारन हीय रह्यो बौराय।
देखत-देखत होय बावरो औरहु देखत जाय।
मन जानत तन जानत मन को जाननहार।
तुम नहिं जानत मीत हमारो तुम पर प्रेम अपार।
मन को भरम देह की ज्वाला और हिए को सूल।
तव प्रसन्न मुख निरखि-निरखि प्रिय गए आज सब भूल।
मलय समीर तुम्हरो मानहु करत प्रान संचार।
तव पिक कोकिल तानन जोर्यो टूट्यो हियो हमार।
तुम्हरे आए बंधु भूमि को दीखत भाव नवीन।
ताप मिटाय भगाय सोक दु:ख हासमयी सो कीन।
सोई आशा त्रिविध सनेह तुम्हारे दई जगाय।
अहो मीत देवत्व तुम्हारो कहँ लगि बरन्यो जाय।
ताही सों जिय होत तुम्हैं हम राखैं निसि दिन पास।
निरखत तव मुखचंद्र गिरावैं पलक न बारह मास।
सिर की सपथ हमारे प्यारे कछु दिन ठहरो और।
सरस करो या नीरस हिय कों हे सब रुत सिरमौर।
झूठो है यह सोर हमारो झूठी हाय पुकार।
अमरनगर वासी क्यों ठहरैं या मरलोक मंझार?
जान्यो हम नंदनबन तुम कहँ टेरत हैं सुरबाल।
देन सुगंध पवन को अरु गूँधन को पुष्पन माल।
तहँ हूँ देखत होई हैं प्यारे सब जन बाट तुम्हार।
तुम्हरे गए होयगो तिनको चिर सुख अधिक अपार।
तब क्या कहैं रहौ जाओ प्रिय, जाओ निज सुखगेह।
याद राखियो भूल न जैयो दीन मित्र को नेह।
जब बाहर या धराधाम कहँ ग्रीषम देहिं तपाय।
तब तुम प्यारे अमी ढालियो मेरे हिय महं आय।
बनो रहै यों ही वसंत अरु खिलैं अनेकन फूल।
उमड़ै स्यामघटा हिय गावैं पंछी जमनाकूल।
प्रीति वसंत अनंत भर्यो यह मम हिय कैसे होय?
साँचि कहौ कबहूँ वा महं यह लेहौ प्रान समोय।
- पुस्तक : गुप्त-निबंधावली (पृष्ठ 647)
- संपादक : झाबरमल्ल शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी
- रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
- प्रकाशन : गुप्त-स्मारक ग्रंथ प्रकाशन-समिति, कलकत्ता
- संस्करण : 1950
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